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एकोनविंशोत्तरशतं पर्व
३७ इति श्रुत्वा महामोदप्रजातपुलकोद्गमः । विस्तारिलोचनः श्रीमान् सम्प्रतस्थेऽन्तिकं यतेः ॥१३॥ भूखेचरमहाराजैः सेव्यमानो महोदयः । विजयः' स्वर्णकुम्भं वा सुभक्तियुतमागमत् ॥११॥ गुणप्रवरनिग्रन्थसहस्रकृतपूजनम् । प्रणनामोपसृत्यैव शिरसा रचिताञ्जलिः ।।१५।। राष्ट्रा स तं महात्मानं मुक्तिकारणमुत्तमम् । जज्ञे निमग्नमात्मानममृतस्येव सागरे ॥१६॥ भविधं महिमानं च परं श्रद्धातिपूरितः । पूर्व यथा महापमः सुव्रतस्येव योगिनः ॥१७॥ सर्वादेरार्थितास्मानो विहायश्चरणा अपि । ध्वजतोरणवृत्ताघसङ्गीत :व्यंधुः परम् ॥१८॥ त्रियामायामतीतायां भास्करेऽभिनिवेदिते । प्रणम्य राघवः साधून वने निर्ग्रन्थदीक्षणम् ॥१६॥ वितकल्मषस्त्यक्तरागद्वेषो यथाविधि । प्रसादात्तव योगीन्द्र विहाँ महमुन्मनाः ॥२०॥ अवोचत गणाधीशः परमं नृप साम्प्रतम् । किमनेन समस्तेन विनाशित्वावसादिना ॥२१॥ सनातननिराबाधपरातिशयसौख्यदम् । मनीषितं परं युक्तं जिनधर्म वगाहितुम् ॥२२॥ एवं प्रभाषिते साधौ विरागी भववस्तुनि । दतं प्रदक्षिणं चक्रे मुनेमेरौ यथा रविः ॥२३॥ समुत्पनमहाबोधिः महासंवेगकङ्कटः । बद्धकक्षो महाश्त्या कर्माणि आपणोद्यतः ॥२४॥ भाशापाशं समुच्छिय निर्दन स्नेहपजरम् । भिस्वा कलबहिजीरं मोहदपं निहत्य च ॥२५॥
मुनि आये हैं यह सुन अत्यधिक हर्षके कारण जिन्हें रोमाञ्च निकल आये थे तथा जिनके नेत्र फूल गये थे ऐसे श्रीराम मुनिके समीप गये ॥१३।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जिस प्रकार पहले विजय बलभद्र स्वर्ण कुम्भ नामक मुनिराज के समीप गये थे उसी प्रकार भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजाओंके द्वारा सेवित एवं महाभ्युदयके धारक राम सुभक्तिके साथ सुव्रत मुनिके पास पहुँचे । गुणोंके श्रेष्ठ हजारों निम्रन्थ जिनकी पूजा कर रहे थे ऐसे उन मुनिके पास जाकर रामने हाथ जोड़ शिरसे नमस्कार किया ॥१४-१५॥ मुक्तिके कारणभूत उन उत्तम महात्माके दर्शन कर रामने अपने आपको ऐसा जाना मानो अमृतके सागरमें ही निमग्न होगया होऊँ ।१६।। जिस प्रकार पहले महापद्म चक्रवर्तीने मुनिसुव्रत भगवान की परम महिमा की थी उसी प्रकार श्रद्धासे भरे श्रीमान् रामने उन सुव्रत नामक मुनिराजको परम महिमा की ॥१७॥ सब प्रकारके आदर करनेमें योग देने वाले विद्याधरोंने भी ध्वजा तोरण अर्घदान तथा संगीत आदिकी उत्कृष्ट व्यवस्था की थी॥१८॥
तदनन्तर रात व्यतीत होनेपर जब सूर्योदय हो चुका तब रामने मुनियोंको नमस्कार कर निर्ग्रन्थ दीक्षा देनेकी प्रार्थना की ॥१६॥ उन्होंने कहा कि हे योगिराज ! जिसके समस्त पाप दूर होगये हैं तथा राग-द्वेषका परिहार हो चुका है ऐसा मैं आपके प्रसादसे विधिपूर्वक विहार करनेके लिए उत्कण्ठित हूँ ॥२०॥ इसके उत्तरमें मुनिसंघके स्वामीने कहा कि हे राजन् ! तुमने बहुत अच्छा विचार किया, विनाशसे नष्ट हो जाने वाले इस समस्त परिकरसे क्या प्रयोजन है? ॥२१॥ सनातन, निराबाध तथा उत्तम अतिशयसे युक्त सुखको देने वाले जिनधर्म में अवगाहन करनेकी जो तुम्हारी भावना है वह बहुत उत्तम है ॥२२॥ मुनिराजके इस प्रकार कहनेपर संसारकी वस्तुओंमें विराग रखनेवाले रामने उन्हें उस प्रकार प्रदक्षिणा दी जिस प्रकार कि सूर्य सुमेरु पर्वतकी देता है ॥२३॥ जिन्हें महाबोधि उत्पन्न हुई थी, जो महासंवेग रूपी कवचको धारण कर रहे थे और जो कमर कसकर बड़े धैर्यके साथ कोंका क्षय करनेके लिए उद्यत हुए थे ऐसे श्री राम आशारूपी पाशको छोड़कर, स्नेहरूपी पिजड़ेको जलाकर, खी रूपी सांकलको तोड़कर, मोहका घमण्ड चूरकर, और आहार, कुण्डल, मुकुट तथा वसको.
१. विजयनामा प्रथमबलभद्रो यथा स्वर्णकुम्भमुनेः पाश्वं जगाम तथेति भावः। २. सर्वदारार्थिता
स्मानो म० । ३. संगीताविव्यधुः परम् म०, संगीताच्चिय॑धुः परम् ज०, ख० । ४. मुनि-म० | ५. स्त्रीशृङ्खलाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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