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Shadduttarashata Parva 306 Deluded by infatuation, she was repeatedly subjected to the misery of womanhood. Defamed by the slander of the ascetics, she attained the state of an elephant on the banks of the Mandakini. 138 Bound by a powerful wind, her steady form became unstable. Releasing a faint sigh, her eyes blossomed. 136 Seeing her about to die, the compassionate Khecara brought her the Karṇajapa mantra. 140 Due to the reduction of her passions, the renunciation of that region, and the grace of Shri-bhuti, she became the daughter of the Vedavati. 141 Seeing the mendicant monk enter the house, she mocked him, whereupon her father made her a Shravika. 142 The kings of the earth, especially Shambhu, were eager to obtain that supremely beautiful maiden, Vedavati. 143 Although a heretic is equal to Kubera in wealth, the priest declared that she would not be given to him. 144 Enraged, Shambhu killed the priest at night. By the grace of the Jina-dharma, the priest attained divinity. 145 Then, Shambhu, driven by lust, attempted to forcibly marry the goddess-like Vedavati, who was unwilling. 146 With his lustful mind, he embraced and kissed her, and proceeded to engage in sexual intercourse with her. 147 Thereupon, she, extremely enraged like a flame of fire, her heart detached, her body trembling, lamented the destruction of her virtue and the murder of her father. 148-149 "O wicked one! You have committed the sin of killing my father, for which I shall now destroy you." 150
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________________ षडुत्तरशतं पर्व ३०६ मोहेन निन्दनः स्त्रैणनिदानर भिगृहनैः । स्त्रीत्वमुत्तमदुःखाक्तं भजमाना' पुनः पुनः ॥१३॥ साधुष्ववर्णवादेन दुरवस्थावलीकृता । परिप्राप्ता करेणुत्वमासीन्मन्दाकिनीतटे ॥१३८॥ सुमहापवनिर्मना परायत्तस्थिरानिका । विमुक्तमन्दसूत्कारा मुकुलीकृतलोचना ॥१३६॥ मुमूर्षन्ती समालोक्य खेचरेण कृपावता । तरङ्गवेगनाम्नासौ कर्णजपमुपाहृता ॥१४॥ ततस्तनुकषायत्वात्तत्क्षेत्रगुणतोऽपि च । प्रत्याख्यानाच्च तहत्ताच्छ्रीभूतेः सा सुताऽभवत् ॥१४१॥ भिक्षार्थिन मुनि गेहं प्रविष्टमवलोक्य सा । उपहासात्ततः पित्रा शामिता श्राविकाऽभवत् ॥१४२॥ तस्याः परमरूपायाः सुकन्यायाः कृतेऽवनी । उत्कण्ठिता महीपालाः शम्भुस्तेषु विशेषतः ॥१४३॥ मिथ्याइष्टिः कुबेरेण समो भवति यद्यपि । तथाऽपि नास्मै देयेयं प्रतिज्ञेति पुरोधसः ॥१४४॥ ततः प्रकुपितेनासौ शम्भुना शयितो निशि । हिसितः सुरतां प्राप्तो जिनधर्मप्रसादतः ॥१४५।। ततो वेदवतीमेनां प्रत्यक्षां देवतामिव । अनिच्छन्तीं प्रभुत्वेन बलादुद्वोढुमुद्यतः ॥१४६॥ मनसा कामतप्तेन तामालिङ्गयोपचुम्ब्य च । विस्फुरन्ती रतिं साक्षान्मैथुनेनोपचक्रमे ॥१४७॥ ततः प्रकुपितात्यन्तं चण्डा वह्निशिखेव सा । विरक्तहृदया बाला वेपमानशरीरिका ॥१४८॥ आत्मनः शीलनाशेन वधेन जनकस्य च । विनाणा परमं दुःखं प्राह लोहितलोचना ॥१४६॥ व्यापाय पितरं पाप कामिताऽस्मि बलेन यत् । भवद्वधार्थमुत्पत्स्ये ततोऽहं पुरुषाधम ॥१५०॥ हो कर्मों के प्रभावसे तिर्यश्च योनिमें चिरकाल तक भ्रमण करती रही ॥१३६।। वह मोह, निन्दा, स्त्री सम्बन्धी निदान तथा अपवाद आदिके कारण बार-बार तीव्र दुःखसे युक्त स्त्रीपर्यायको प्राप्त करती रही ॥१३७॥ तदनन्तर साधओंका अवर्णवाद करनेके कारण वह दःखमयी अवस्थासे दुखी होती हुई गङ्गा नदीके तटपर हथिनी हुई ॥१३८।। वहाँ वह बहुत भारी कीचड़में फंस गई जिससे उसका शरीर एकदम पराधीन होकर अचल हो गया। वह धीरे-धीरे सू-सू शब्द छोड़ने लगी तथा नेत्र बन्दकर मरणासन्न अवस्थाको प्राप्त हुई ॥१३६॥ तदनन्तर उसे मरती देख तरङ्गवेग नामक दयालु विद्याधरने उसे कानमें नमस्कार मन्त्रका जाप सुनाया ॥१४०।। उस मन्त्र के प्रभावसे उसकी कषाय मन्द पड़ गई, उसने उसी स्थानका क्षेत्र संन्यास धारण किया तथा उक्त विद्याधरने उसे प्रत्याख्यान-संयम दिया। इन सब कारणोंके मिलनेसे वह श्रीभूतिनामक पुरोहितके वेदवती नामकी पुत्री हुई ॥१४१।। एक बार भिक्षाके लिए घरमें प्रविष्ट मुनिको देखकर उसने उनकी हँसी की तब पिताने उसे समझाया जिससे वह श्राविका हो गई ॥१४२।। वेदवती परम सुन्दरी कन्या थी अतः उसे प्राप्त करनेके लिए पृथिवीतलके राजा अत्यन्त उत्कण्ठित थे और उनमें शम्भु विशेष रूपसे उत्कण्ठित था ॥१४३॥ पुरोहितकी यह प्रतिज्ञा थी कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि पुरुष सम्पत्तिमें कुबेरके समान हो तथापि उसके लिए यह कन्या नहीं दूंगा ॥१४४॥ इस प्रतिज्ञासे शम्भु बहुत कुपित हुआ और उसने रात्रिमें सोते हुए पुरोहितको मार डाला । पुरो. हित मरकर जिनधर्मके प्रसादसे देव हुआ॥१४५॥ तदनन्तर जो साक्षात् देवतांके समान जान पड़ती थी ऐसी इस वेदवतीको उसकी इच्छा न रहनेपर भी शम्भु अपने अधिकारसे बलात् विवाहनेके लिए उद्यत हुआ ॥१४६॥ साक्षात् रतिके समान शोभायमान उस वेदवतीका शम्भुने कामके द्वारा संतप्त मनसे आलिङ्गन किया। चुम्बन किया और उसके साथ बलात् मैथुन किया ॥१४७॥ तदनन्तर जो अत्यन्त कुपित थी, अग्निशिखाके समान तीक्ष्ण थी, जिसका हृदय विरक्त था, शरीर काँप रहा था, जो अपने शील के नाश और पिताके वधसे तीव्र दुःख धारण कर रही थी-तथा जिसके नेत्र लाल-लाल थे ऐसी उस वेदवतीने शम्भुसे कहा कि अरे पापी ! नीच पुरुष ! तूने पिताको मारकर बलात् मेरे १. भजमानाः म० । २. कामतृसेन म० । ३. -मुत्पश्ये म० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001824
Book TitlePadmapuran Part 3
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages492
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size13 MB
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