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चतुरुत्तरशतं पर्व
अथ विज्ञापितोऽन्यस्मिन्दिने हलधरो नृपः । मरुनन्दन सुग्रीवविभीषणपुरःसरेः ॥१॥ नाथ प्रसीद विषयेऽन्यस्मिन्ञ्जनकदेहजा । दुःखमास्ते समानेतुं तामादेशो विधीयताम् ॥२॥ निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च क्षणं किञ्चिद्विचिन्त्य च । ततो जगाद पद्माभो बाष्पश्यामितदिङ्मुखः ॥ ३॥ अनघं वेद्मि सीतायाः शीलमुत्तमचेतसः । प्राप्तायाः परिवादं तु पश्यामि वदनं कथम् ॥४॥ समस्तं भूतले लोकं प्रत्याययतु जानकी । ततस्तया समं वासो भवेदेव कुतोऽन्यथा ॥ ५ ॥ एतस्मिन्भुवने तस्मान्नृपाः जनपदैः समम् । निमंत्रयंतां परं प्रीत्या सकलाश्च नभश्वराः ॥ ६ ॥ समक्षं शपथं तेषां कृत्वा सम्यग्विधानतः । निरघप्रभवं सीता शचीव प्रतिपद्यताम् ||७|| एमस्विति तैरेवं कृतं क्षेपविवर्जितम् । राजानः सर्वदेशेभ्यः सर्वदिग्भ्यः समाहृताः ॥८॥ नानाजनपदा बालवृद्वयोषित्समन्विताः । अयोध्यानगरीं प्राप्ता महाकौतुकसंगताः ॥६॥ असूर्यपश्यनार्योऽपि यत्राऽऽजग्मुः ससंभ्रमाः । ततः किं प्रकृतिस्थस्य जनस्यान्यस्य भण्यताम् ॥ १० ॥ वर्षीय सोऽतिमात्रं ये बहुवृत्तान्तकोविदाः । राष्ट्रप्राग्रहराः ख्यातास्ते चान्ये च समागताः ॥११॥ तदा दिक्षु समस्तासु मार्गत्वं सर्वमेदिनीम् । नीता जनसमूहेन परसङ्घट्टमीयुषा ॥ १२ ॥ तुरगैः स्यन्दनैर्युग्यैः शिबिकाभिमतङ्गजैः । अन्यैश्च विविधैर्यानैर्लोक सम्पत्समागताः ॥ १३ ॥ आगच्छद्भिः खगैरूर्ध्वमधश्च चितिगोचरैः । जगज्जंगमेवेति तदा समुपलच्यते ॥ १४॥
अथानन्तर किसी दिन हनूमान् सुग्रीव तथा विभीषण आदि प्रमुख राजाओंने श्री रामसे प्रार्थना की कि हे देव ! प्रसन्न होओ, सीता अन्य देश में दुःखसे स्थित है इसलिए लानेकी आज्ञा की जाय ॥१-२॥ तब लम्बी और गरम श्वास ले तथा क्षण भर कुछ विचार कर भापोंसे दिशाओं को मलिन करते हुए श्रीरामने कहा कि यद्यपि मैं उत्तम हृदयको धारण करने वाली सीताके शील को निर्दोष जानता हूँ तथापि वह यतश्च लोकापवादको प्राप्त है अतः उसका मुख किस प्रकार देखूँ || ३-४ || पहले सीता पृथिवीतल पर समस्त लोगोंको विश्वास उत्पन्न करावे उसके बाद ही उसके साथ हमारा निवास हो सकता है अन्य प्रकार नहीं ||५|| इसलिए इस संसार में देशवासी लोगों के साथ समस्त राजा तथा समस्त विद्याधर बड़े प्रेमसे निमन्त्रित किये जावें ॥ ६ ॥ उन सब के समक्ष अच्छी तरह शपथ कर सीता इन्द्राणीके समान निष्कलङ्क जन्मको प्राप्त हो ||७|| 'एवमस्तु' - 'ऐसा ही हो' इस प्रकार कह कर उन्होंने बिना किसी विलम्बके उक्त बात स्वीकृत की; फल स्वरूप नाना देशों और समस्त दिशाओंसे राजा लोग आ गये ||८|| बालक वृद्ध तथा स्त्रियोंसे सहित नाना देशोंके लोग महाकौतुकसे युक्त होते हुए अयोध्या नगरीको प्राप्त हुए ॥ ६ ॥ सूर्यको नहीं देखने वाली स्त्रियाँ भी जब संभ्रमसे सहित हो वहाँ आई थीं तब साधारण अन्य मनुष्यके विषय में तो कहा ही क्या जावे ? ||१०|| अत्यन्त वृद्ध अनेक लोगोंका हाल जाननेमें निपुण जो राष्ट्रके श्रेष्ठ प्रसिद्ध पुरुष थे वे तथा अन्य सब लोग वहाँ एकत्रित हुए || ११ | | उस समय परम भीड़ को प्राप्त हुए जन समूहने समस्त दिशाओं में समस्त पृथिवीको मार्ग रूप में परिणत कर दिया था ॥१२॥ लोगों के समूह घोड़े, रथ, बैल, पालकी तथा नाना प्रकारके अन्य वाहनोंके द्वारा वहाँ आये थे ||१३|| ऊपर विद्याधर आ रहे थे और नीचे भूमिगोचरी, इसलिए उन सबसे उस समय यह जगत् ऐसा जान पड़ता था मानो जंगम ही हो अर्थात् चलने फिरने वाला ही हो ॥१४॥
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