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पञ्चाशीतितम पर्व
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आर्यागोतिवृत्तम् जिनवरवदनविनिर्गतमुपलभ्य शिवैकदानतत्परमतुलम् ।
निर्जितरविरुचिसुकृतं कुरुत यतो यात निमलं परमपदम् ॥१७५॥ इत्याचे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे भरतत्रिभुवनालङ्कारसमाध्यनुभवानुकीर्तनं
नाम पञ्चाशीतितम पर्व ॥८॥
आत्म-हितसे दूर रहते हैं ॥१७४।। हे भव्यजनो! जो श्री जिनेन्द्र देवके मुखारविन्दसे प्रकट हुआ है तथा मोक्षके देने में तत्पर है ऐसे अनुपम जिनधर्मको पाकर सूर्यकी कान्तिको जीतनेवाला पुण्य संचय करो जिससे निमेल परम पदको प्राप्त हो सको ॥१७५।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराणामें भरत तथा
त्रिलोकमण्डन हाथीके पूर्वभवोंका वर्णन करनेवाला
पचीसवाँ पर्व पूर्ण हुअा ॥८॥
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