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पद्मपुराणे
परितप्येऽधुना व्यर्थ किमिदं स्मृतिसङ्गतः । करोमि कर्म तयेन लभ्यते हितमात्मने ॥१३॥ उद्वेगकरणं नात्र कारणं दुःखमोचने । तस्मादपायमेवाहं घटे सर्वादरान्वितः ॥१३२॥
उपेन्द्रवज्रा इति स्मृतातीतभवो गजेन्द्रो भवे तु वैराग्यमलं प्रपन्नः । दुरीहितैकान्तपराङ्मुखात्मा स्थितः सुकर्मार्जनचिन्तनाग्रः ॥१३३॥
उपजातिवृत्तम् कृतानि कर्माण्यशुभानि पूर्व सन्तापमुग्रं जनयन्ति पश्चात् ।
तम्माजनाः कर्म शुभं कुरुध्वं रवौ सति प्रस्खलनं न युक्तम् ॥१३४॥ इत्याचे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मपुराणे त्रिभुवनालङ्कारक्षोभाभिधानं नाम त्र्यशीतितम पर्व ।
इस हस्ती पर्यायको कैसे प्राप्त हो गया ? अहो इस पापपूर्ण चेष्टाको धिक्कार हो ॥१३०।। अब इस समय पूर्ण भवको स्मृतिको प्राप्त हो व्यर्थ ही क्यों संताप करूँ, अब तो वह कार्य करता हूँ कि जिससे आत्महितकी प्राप्ति हो ॥१३१॥ उद्वेग करना दुःखके छूटनेका कारण नहीं है इसलिए मैं पूर्ण आदरके साथ वही उपाय करता हूँ जो दुःखके छूटनेका कारण है ॥१३२।। इसप्रकार जिसे पूर्वभवका स्मरण हो रहा था, जो संसारके विषयमें अत्यधिक वैराग्यको प्राप्त हुआ था, जिसकी आत्मा पापरूप चेष्टासे अत्यन्त विमुख थी तथा जो पुण्य कर्मके संचय करनेकी चिन्तासे युक्त था ऐसा वह त्रिलोकमण्डन हाथी भरतके आगे शान्तिसे बैठ गया ॥१३३।। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! पूर्वभवमें किये हुए अशुभकर्म पीछे चलकर उग्र संताप उत्पन्न करते हैं इसलिए हे भव्यजनो ! शुभ कार्य करो क्योंकि सूर्यके रहते हुए स्खलित होना उचित नहीं है ॥१३४॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराणमें त्रिलोकमंडन हाथीके
क्षभित होनेका वर्णन करनेवाला तेरासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥३॥
१. भवेत्तु म०।
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