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पद्मपुराणे
प्रलंम्बजलभृत्तुल्यास्तूर्यघोषाः समुद्ययुः । शङ्खकोटिरवोन्मिश्रा भम्भाभेरीमहारवाः ॥२६॥ पटहानां पटीयांसो मन्द्राणां मन्द्रता ययुः । लम्पानां कम्पशम्पानां धुन्धूनां मधुरा भृशम् ॥३०॥ झल्लाम्लातकहकानां हैकहुकारसङ्गिनाम् । गुञ्जारटितनाम्नां च वादित्राणां महास्वनाः ॥३१॥ सुकलाः काहला नादा घना हलहलारवाः । अट्टहासास्तुरङ्गभसिंहव्याघ्रादिनिस्वनाः ॥३२॥ वंशस्वनानुगामीनि गीतानि विविधानि च । विनर्दितानि भाण्डानां वन्दिनां पठितानि च ॥३३॥ सङ्क्रीडितानि रम्याणि रथानां सूर्यतेजसाम् । वसुधाक्षोभघोषाश्च प्रतिशब्दाश्च कोटिशः ॥३४॥ एवं विद्याधराधीशैर्बिभ्रद्भिः परमां श्रियम् । वृतौ विविशतः कान्तौ पुरं पद्माभचक्रिणौ ॥३५॥ भासन् विद्याधरा देवा इन्द्रौ पनामचक्रिणौ । अयोध्यानगरी स्वर्गो वर्णना तत्र कीदशी ॥३६॥ पमानननिशानाथं वीचय लोकमहोदधिः । कलध्वनियंयौ वृद्धिमत्यावर्त्तनवेलया ॥३७॥ विज्ञायमानपुरुषैः पूज्यमानौ पदे पदे । जय वर्द्धस्व जीवेति नन्देति च कृताशिषौ ॥३८॥ अत्युत्तुङ्गविमानाभभवनानां शिरः स्थिताः । सुन्दर्यस्तौ विलोकन्त्यो विकचाम्भोजलोचनाः ॥३६॥ सम्पूर्णचन्द्रसङ्काशं पद्म पद्मनिभेक्षणम् । प्रावृषेण्यधनच्छायं लक्ष्मणं च सुलक्षणम् ॥४०॥ नार्यों निरीक्षितुं सता मुक्ताशेषापरक्रियाः । गवाक्षान् वदनैश्चक्रोमाम्भोजवनोपमान् ॥४१॥ राजन्नन्योन्यसम्पर्के निर्भरे सति योषिताम् । सृष्टाऽपूर्वा तदा वृष्टिश्छिन्नहारैः पयोधरैः ॥४२॥
विमानों, घोड़ों, रथों और हाथियोंकी घटाओंसे अयोध्याके मार्ग अवकाशरहित हो गये ॥२८॥ लूमते हुए मेघोंकी गर्जनाके समान तुरहीके शब्द तथा करोड़ों शङ्खोंके शब्दोंसे मिश्रित भंभा और भेरियोंके शब्द होने लगे ।।२६।। बड़े-बड़े नगाड़ाके जोरदार शब्द तथा बिजलीके समान चश्चल लंप और धुन्धुओंके मधुर शब्द गम्भीरताको प्राप्त हो रहे थे ॥३०॥ हैक नामक वादियोंको हुँकारसे सहित झालर, अम्लातक, हक्का, और गुञ्जा रटित नामक वादित्रोंके महाशब्द, काहलोंके अस्फुट एवं मधुर शब्द, निविडताको प्राप्त हुए हलहलाके शब्द, अट्टहासके शब्द, घोड़े, हाथी, सिंह और व्याघ्रादिके शब्द, बाँसुरीके स्वरसे मिले हुए नाना प्रकारके संगीतके शब्द, भाँड़ोंके विशाल शब्द, वंदीजनोंके विरद पाठ, सूर्यके समान तेजस्वी रथोंकी मनोहर चीत्कार, पृथिवीके कम्पनसे उत्पन्न हुए शब्द और इन सबकी करोड़ों प्रकारकी प्रतिध्वनियोंके शब्द सब एक साथ मिलकर विशाल शब्द कर रहे थे ॥३१-३४॥ इस प्रकार परम शोभाको धारण करनेवाले विद्याधर राजाओंसे घिरे हुए सुन्दर शरीरके धारक राम और लक्ष्मणने नगरीमें प्रवेश किया ॥३५॥ उस समय विद्याधर देव थे, राम-लक्ष्मण इन्द्र थे और अयोध्यानगरी स्वर्ग थी तब उनका वर्णन कैसा किया जाय ? ॥३६॥ श्रीरामके मुख रूपी चन्द्रमाको देखकर मधुरध्वनि करनेवाला लोक रूपी सागर, बढ़ती हुई वेलाके साथ वृद्धिको प्राप्त हो रहा था ॥३७॥ पहिचानमें आये पुरुष जिन्हें पद-पद पर पूज रहे थे, तथा जयवन्त रहो, बढ़ते रहो, जीते रहो, समृद्धिमान् होओ, इत्यादि शब्दोंके द्वारा जिन्हें स्थान-स्थान पर आशीर्वाद दिया जा रहा था ऐसे दोनों भाई नगरमें प्रवेश कर रहे थे ॥३८॥ अत्यन्त ऊँचे विमान तुल्य भवनोंके शिखरों पर स्थित त्रियोंके नेत्रकमल राम लक्ष्मणको देखते ही खिल उठते थे ॥३६।। पूर्ण चन्द्रमाके समान कमललोचन राम और वर्षाकालीन मेघके समान श्याम, सुन्दर लक्षणोंके धारक लक्ष्मणको देखने के लिए तत्पर त्रियाँ अन्य सब काम छोड़ अपने मुखोंसे झरोखोंको कमल वनके समान कर रहीं थीं ॥४०-४१॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि राजन् ! उस समय परस्परमें अत्यधिक सम्पर्क होने पर जिनके हार टूट गये थे ऐसी स्त्रियोंके पयोधरों अर्थात् स्तनरूपी पयोधरों अर्थात् मेघोंने
३. भट्टहासा -म०।
४. चक्र-म०।
५. शक्ता
१.प्रलय- म०। २. कम्पे शपा इव तेषाम् । म०, क०।
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