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## Chapter 40 The Padma Purana states that the man who can string this Vajravart bow is the most excellent man, and he shall be chosen by you, O Kumari! (223) Those who were proud and boasted about themselves, adorned with beautiful ornaments, were brought to the Vajravart bow by the attendant. (224) As the bow approached the princes, it released fire, resembling a flash of lightning, with hissing serpents. (225) Some princes, blinded by the flames of the bow, covered their eyes with their hands and quickly retreated. (226) Others, seeing the serpents, stood still, their bodies trembling, their eyes closed. (227) Some were overcome with fever and fell to the ground, some lost their voices, some fled quickly, and some fainted. (228) Some were blown away by the serpents' breath like dry leaves, some became stiff, and some were left with their pride extinguished. (229) Some said, "If we can return to our own place, we will give alms to living beings. O God, give me two feet, give me the strength to run away!" (230) Others said, "If we survive, we will serve other women. What use is this beautiful one?" (231) Some said, "Surely some wicked person has used this great illusion to kill the kings." (232) Others said, "What use do we have for lust? We will spend our time in celibacy like the virtuous." (233) Then, those who desired the excellent bow, like rutting elephants, approached it with slow, heavy steps. (234) The virtuous Rama, with his beautiful ornaments, approached the bow, gentle and respectful like a student to his teacher. (235)
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________________ ४० पद्मपुराणे वज्रावर्तमिदं चापमारोपयति यो नरः । कुमारि वरणीयोऽसौ भवत्या पुरुषोत्तमः ॥२२३॥ क्रमेण मानिनस्ते च कुर्वाणाः स्वविकत्थनम् । वज्रावर्तधनुस्तेन ढौकिताश्चारुविभ्रमाः ॥२२४॥ आसीदत्सु कुमारेषु धनुर्मुञ्चति पावकम् । विद्यत्सटासमाकारं निश्वसद्धीषणोरगम् ।।२२५॥ चक्षुस्तत्र द्रुतं के चिद्धनुज्वालासमाहतम् । त्रस्ताः पिधाय पाणिभ्यां पराचीनत्वमाश्रिताः ॥२२६॥ तस्थुरत एवान्ये दृष्ट्वा स्फुरितपन्नगान् । कम्पमानसमस्ताङ्गा निमीलितविलोचनाः ॥२२७॥ केचिज्ज्वराकुलाः पेतुः क्षितावन्ये गिरोज्झिताः । दूतं पलायिताः केचिदेके मूर्छामुपागताः ॥२२८॥ केचित्पलगवातेन शिक्षा मर्मरपत्रवत् । अपरे स्तम्भमायाताः स्थिताः शान्तर्द्धयोऽपरे ॥२२९॥ केचिदृचुयदि स्थानं गमिष्यामो निजं ततः । जीवदानाने दास्याभश्चरणौ देहि देवते ॥३०॥ "ऊचुरन्येऽन्यनारीभिः सेवां मानसवासिनः । ध्रियमाणाः करिष्यामो रूपिण्यापि किमेतया ॥२३॥ अन्ये जगुरियं नूनं केनापि करचेतसा । प्रयुक्ता परमा माया वधार्थं पृथिवीक्षिताम् ॥२३२॥ अन्ये जगुः किमस्माकं कामेनास्ति प्रयोजनम् । ब्रह्मचर्यण नेष्यामः समयं साधतो यथा ॥२३३।। तत पताः समुत्तस्थौ वरकामकलालसः । इडौके चमहानागमन्थरां गतिमदहन ॥२३४॥ आसीदतिशुभे तस्मिन्न रूपं भेजे धनुर्निजम् । सुचारुषरनं सौम्यमन्तेवासी गुराविव ॥२३५॥ राजा इत्यादि वर्णनासे युक्त तथा महागुणवान् सुने जाते हैं। तुम्हारे लिए इन सबका यह परीक्षण प्रारम्भ किया गया है ॥२२२॥ हे कुमारि ! जो पुरुष इस वज्रावर्त धनुषको चढ़ा देगा वही पुरुषोतम तुम्हारे द्वारा वरा जाना है ॥२२३।। तदनन्तर जो मानसे सहित थे, अपनी प्रशंसा अपनेआप कर रहे थे, और सुन्दर विलाससे सहित थे ऐसे उन सब राजाओंको वह कंचुकी वज्रावर्त धनुषके पास ले गया ॥२२४॥ जिसका आकार बिजलीकी छटाके समान था तथा जिसमें भयंकर साँप फुकार रहे थे ऐसा वह धनुष राजकुमारोंके पास आते ही अग्नि छोड़ने लगा ॥२२५।। कितने ही राजकुमार भयभीत हो धनुषकी ज्वालाओंसे ताड़ित चक्षुको दोनों हाथोंसे ढंककर शीघ्र ही वापिस लौट गये ॥२२६|| जिनके समस्त अंग कम्पित हो रहे थे तथा नेत्र बन्द हो गये थे ऐसे कितने ही लोग चलते हुए साँपोंको देखकर दर ही खडे रह गये थे ॥२२७|| कितने ही लोग ज्वरसे आकल हो गिर पड़े, कितने ही लोगोंकी बोलती बन्द हो गयी, कितने ही शीघ्र भाग गये और कितने ही मू को प्राप्त हो गये ॥२२८।। कितने ही लोग साँपोंकी वायुसे सूखे पत्रके समान उड़ गये, कितने ही अकड़ गये और कितने ही लोगोंको ऋद्धि शान्त हो गयी अर्थात् वे शोभारहित हो गये ।।२२९|| कितने ही लोग कहने लगे कि यदि हम अपने स्थानपर वापिस जा सकेंगे तो जीवोंको दान देवेंगे। हे देवते ! मुझे दो चरण दो अर्थात् वापिस भागनेकी पैरोंमें शक्ति प्रदान करो ।।२३०|| कितने ही लोग बोले कि यदि हम जीवित रहेंगे तो अन्य स्त्रियोंसे कामकी सेवा कर लेंगे। भले ही यह रूपवती हो पर इससे क्या प्रयोजन है ? ॥२३१।। कुछ लोग कहने लगे कि निश्चित ही किसी दुष्ट चित्तने राजाओंके वधके लिए दस मायाका प्रयोग किया है ।।२३२॥ और कुछ लोग कहने लगे कि हमें कामसे क्या प्रयोजन ? हम तो साधुओंके समान ब्रह्मचर्यसे समय बिता देवेंगे ।।२३३।। तदनन्तर जिन्हें उस उत्कृष्ट धनुषकी लालसा उत्पन्न हो रही थी ऐसे राम मदोन्मत्त गजराजके समान मन्थर गतिको धारण करते हुए उसके पास पहुँचे ।।२३४॥ पुण्यशाली रामके १. चारुविभ्रमा म.। २. शीघ्रम् । ३. पराङ्मुखत्वम् । ४. केचिद्वराकुला म., केचित्त्वराकुला ज. । ५. वाण्या रहिताः। ६. देवि ज.। ७. ऊचुरन्येन नारीभिः म.। ८. कामस्य । ९. महागजमन्थरां । १०. छात्रः। पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001823
Book TitlePadmapuran Part 2
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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