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पद्मपुराणे
पातालादुत्थितः किं वा नागेन्द्रस्यायमालयः । कुतोऽपि कारणात् सूर्य मरीचिकृतखण्डनः ||१२|| अहो मे यना' तेन भद्रेणोपकृतं परम् । अदृष्टपूर्वमेतद् यत् साधु वेश्मावलोकितम् ||१३|| विवेश चिन्तयन्नेव भवनं तन्मनोहरम् । संफुल्लवदनाम्भोजो ददर्श च जिनाधिपम् ||१४|| हुताशनशिखागौरं पूर्णचन्द्रनिभाननम् । पद्मासनस्थितं तुझं जटामुकुटधारिणम् ||१५|| प्रातिहार्यसमायुक्तं हेमतामरसार्चितम् । चित्ररत्न कृतच्छायं तुङ्गसिंहासनस्थितम् ॥९६॥ ततोऽञ्जलिपुटं मूर्ध्नि कृत्वा हृष्टतनूरुहः । प्रणामं प्रयतः कुर्वन् भक्त्या मूर्च्छामुपागतः ॥ ९७ ॥ क्षणेन प्राप्य संज्ञां च स्तुतिं कृत्वा सुसंस्कृताम् । विस्रब्धं जनकस्तस्थौ विस्मयं परमुद्वहन् ॥९८॥ कृती चपलवेगश्च मायां संहृत्य सत्वरः । खड्गविद्याधरो भूत्वा संप्राप रथनूपुरम् ||१९|| स्वामिने चावदन्नत्या तुष्टो जनकमाहृतम् । रम्यकाननसंवीते स्थापितं जिनवेश्मनि ॥१००॥ आगतं जनकं ज्ञात्वा परं हर्षमुपागमत् । आप्तवर्गेण संयुक्तश्चन्द्रयानो महामनाः ॥ १०१ ॥ गृहीत्वा च परां पूजां नानावाहनसंकुलः । मनोरथरथारूढो ययौ जिनवरालयम् ॥१०२॥ दृष्ट्वा तत्सुमहत्सैन्यमागच्छत्परमोज्ज्वलम् । तूर्यशङ्खमहानादमाविग्नो जनकोऽभवत् ॥ १०३॥ ततो हरिगजद्वीपिनागहंसादिवाहिनाम् । पुरुषाणामिदं मध्ये विमानं स व्यलोकयत् ||१०४ ||
लगे कि क्या यह आकाशसे गिरा हुआ विमान है अथवा दैत्योंके द्वारा हरण किया हुआ इन्द्रका गृह है ? || ९१ ॥ अथवा किसी कारणवश सूर्यको किरणोंसे जिसके खण्ड हो गये थे ऐसा पातालसे निकला हुआ नागेन्द्रका भवन है ? ||१२|| अहो ! उस भले घोड़ेने मेरा बड़ा उपकार किया जिससे मैं इस अदृष्टपूर्वं सुन्दर मन्दिरको देख सका || ९३ || ऐसा विचार करते हुए राजा जनकने उस मनोहर मन्दिर में प्रवेश किया और वहाँ जाकर जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन किये | जिनदर्शन के प्रभाव से उनका मुखकमल खिल उठा था || ९४ || मन्दिरमें विराजमान जिनेन्द्रदेव अग्निकी शिखाके समान गौर वर्ण थे, उनका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान था, वे पद्मासन से विराजमान थे, बहुत ऊँचे थे, जटारूपी मुकुटको धारण किये हुए थे, आठ प्रातिहार्योंसे युक्त थे, स्वर्ण कमलोंसे उनकी पूजा की गयी थी, नाना प्रकारके रत्नोंसे उनकी कान्ति बढ़ रही थी, और वे ऊँचे सिंहासनपर विराजमान थे ||९५-९६ ॥
तदनन्तर जिसके शरीरमें रोमांच उठ रहे थे ऐसे राजा जनकने हाथ जोड़कर मस्तक लगाये और बड़ी सावधानी से जिनेन्द्रदेवको नमस्कार किया । नमस्कार करते-करते उसकी भक्ति इतनी अधिक बढ़ी कि वह उसके अतिरेक से मूच्छित हो गया ॥ ९७॥ क्षण-भर के बाद पुनः चेतना प्राप्त कर उसने सुन्दर सुसंस्कृत स्तुति की । तदनन्तर वह परम आश्चर्यको धारण करता हुआ निःशंक हो वहीं बैठ गया ||१८||
इधर चपलवेग नामका विद्याधर जो घोड़ेका रूप धरकर जनकको हर ले गया था अपने का में सफल हो बड़ा प्रसन्न हुआ तथा शीघ्रतासे सब माया समेटकर तथा खड्गधारी विद्याधर बनकर रथनूपुर नगर पहुँचा ||१९|| उसने सन्तुष्ट होकर अपने स्वामी के लिए नमस्कार कर कहा कि राजा जनक यहाँ लाये जा चुके हैं तथा सुन्दर वनसे वेष्टित जिनमन्दिरमें उन्हें ठहरा दिया गया है ॥ १०० ॥ राजा जनकको आया जानकर चन्द्रगति परम हर्षको प्राप्त हुआ । तदनन्तर उदार चित्तको धारण करनेवाला एवं नाना वाहनोंसे युक्त चन्द्रगति आप्तवर्गके साथ पूजाकी उत्तमोत्तम सामग्री लेकर मनोरथरूपी रथपर सवार हो जिनमन्दिर गया ||१०१-१०२ || जिसमें तुरही और शंखों का विशाल शब्द हो रहा था ऐसी उस देदीप्यमान बड़ी भारी सेनाको आती देख जनक कुछ भयभीत हुआ || १०३ || तदनन्तर उसमें सिंह, हाथी, शार्दूल, नाग तथा हंस आदि नाना १. अश्वेन । २. तुङ्गजटा-ज, क, ख । ३. सुवर्णकमलपूजितम् । ४. मनोहरोद्यानवेष्टिते । ५. सुमहासैन्य ब. ।
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