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The most excellent of the three worlds, In that land, all men are surely like you. By the doctrine of the pot and the rice, it is known indirectly. || 227 || Thus having spoken, Lakshmana, the bearer of Lakshmi, was filled with anger. I have come for the sake of equality, not to bow to you. || 228 || Hear this in brief, O Singhodara. Accept peace now, or embrace death today. || 229 || Hearing this, the entire assembly was filled with extreme anger. They spoke many kinds of harsh words and performed various actions. || 230 || Some warriors, their bodies trembling with anger, drew their daggers, And some drew their swords, ready to kill him. || 231 || They roared with speed, and were extremely agitated. They surrounded him from all sides, like mosquitoes around a mountain. || 232 || The wise and valiant Lakshmana, skilled in swift action, Flung those who could not come close, far away, with kicks. || 233 || Moving swiftly, he struck some with his knees, some with his elbows, And some with punches, shattering them into a hundred pieces. || 234 || He pulled the hair of some, threw them to the ground, and crushed them with his feet, And he knocked some down with blows from his shoulders. || 235 || He crushed the heads of some by making them collide with each other, And he rendered some unconscious with blows from his shins. || 236 || Thus, that mighty Lakshmana, alone, destroyed that assembly of Singhodara, Filling them with fear. || 237 || As he was thus destroying the assembly, and had come out of the building into the courtyard, He was surrounded by hundreds of other warriors. || 238 || Then, a great commotion arose from the clashing of the lords, elephants, horses, and chariots, All prepared for battle. || 239 || The valiant Lakshmana, embraced by Lakshmi, with various weapons in his hands, Behaved like a lion among jackals. || 240 ||
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________________ त्रयस्त्रशत्तमं पव तत्र देशे नरा नूनं सर्व एव भवद्विधाः । स्थालीपुलाकधर्मेण परोक्षं ज्ञायते ननु ॥ २२७ ॥ इत्युक्ते कोपमायातः किंचिल्लक्ष्मीधरोऽवदत् । साम्यहेतोरहं प्राप्तो न ते कर्तुं नमस्कृतिम् ॥२२८॥ बहुना हिरे संक्षेपतः शृणु । प्रतीच्छ सन्धिमद्यैव मरणं वा समाश्रय ॥२२९॥ इत्युक्ते परिषत्सर्वा परं क्षोभमुपागता । नानाप्रकारदुर्वाक्या नानाचेष्टाविधायिनी ॥ २३० ॥ आकृष्य च्छुरिकां के चिह्निस्त्रिशानपरे भटाः । वधार्थमुद्यतास्तस्य कोपकम्पितमूर्तयः ॥२३१॥ वेगनिर्मुक्तहुङ्काराः परस्परसमाकुलाः । ते तं समन्ततो बर्मशका इव पर्वतम् ॥ २३२॥ ara aidset क्रियालापण्डितः । चिक्षेष चरणाघातैर्दूरं तान् विह्वलान् समम् ॥ २३३॥ जघान जानुना कांश्चित्कूर्परेणापराव श्रमन् । कश्विन्मुष्टिप्रहारेण चकार शतशर्करान् ॥ २३४ ॥ कचेपु कांश्विदाप्य निपाल धरणीतले । पादेनाचूर्णयत् कांश्चिदसघातैरपातयत् ।। २३५|| कांश्चिदन्योन्यघातेन परिचूर्णितमस्तकान् । चकार जङ्घया कांश्चिदरं प्राप्तविमूर्छनान् ॥ २३६ ॥ एवमेकाकिना तेन परिपत्सा तथाविधा । महाबलेन विध्वंसं नीता भयसमाकुला ॥ २३७॥ एवं विध्वंसयन् यावनिष्क्रान्तो भवनाजिरम् । तावद्येोधशतैरन्यैः लक्ष्मणः परिवेष्टितः || २३८ | ! सामन्तैरथ सन्दर्वारणैः सप्तिभी रथैः । परस्परविसर्देन बभूवाकुलता परा ॥२३९॥ नानाशस्त्रक रेवेषु लक्ष्म्यालिङ्गितविग्रहः । चकार चेष्टितं वीरः शृगालेष्विव केसरी || २४०॥ नमस्कार नहीं किया ||२२६|| सचमुच ही उस देश के सब लोग तेरे ही जैसे हैं जिस प्रकार बटलोईके दो-चार सीथ जाननेसे सब सीथोंका ज्ञान हो जाता है उसी प्रकार तेरे द्वारा वहाँके सब लोगोंका परोक्ष ज्ञान हो रहा है || २२७|| ११७ सिंहदरके इस प्रकार कहनेपर कुछ क्रोधको प्राप्त हुआ लक्ष्मण बोला कि मैं साम्यभाव स्थापित करने के लिए यहाँ आया हूँ तुझे नमस्कार करनेके लिए नहीं ||२२८|| सिंहोदर ! इस विषय में बहुत कहने से क्या ? संक्षेपसे सुन, या तो तू सन्धि कर या आज ही मरणका आश्रय ले ||२२९|| यह कहते ही समस्त सभा परम क्षोभको प्राप्त हो गयी, नाना प्रकारके दुर्वचन बोलने लगी तथा नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करने लगी || २३०|| जिनके शरीर क्रोधसे काँप रहे थे ऐसे कितने ही योधा छुरी खींचकर और कितने ही योधा तलवारें निकालकर उसका वध करनेके लिए उद्यत हो गये || २३१|| जो वेगसे हुंकार छोड़ रहे थे तथा जो परस्पर अत्यन्त व्याकुल ऐसे उन योद्धाओंने लक्ष्मणको चारों ओरसे उस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि मच्छर किसी पर्वतको घेर लेते हैं ||२३२ || शीघ्रता से कार्य करने में निपुण धीर-वीर लक्ष्मणने जो पासमें नहीं आ पाये थे ऐसे उन योद्धाओंको चरणोंकी चपेट से विह्वल कर एक साथ दूर फेंक दिया || २३३ || शीघ्रतासे घूमते हुए लक्ष्मणने कितने ही लोगों को घुटनोंसे, कितने ही लोगोंको कोहनीसे, और कितने ही लोगोंको मुट्ठियों के प्रहारसे शतखण्ड कर दिया अर्थात् एक-एकके सौ-सौ टुकड़े कर दिये || २३४|| कितने ही लोगोंके बाल खींचकर तथा पृथिवीपर पटककर उन्हें पैरोंसे चूणं कर डाला और कितने हो लोगों को कन्धेके प्रहारसे गिरा दिया || २३५|| कितने ही लोगोंको परस्पर भिड़ाकर उनके शिर एक दूसरेके शिरकी चोटसे चूर्ण कर डाले और कितने ही लोगोंको जंघाके प्रहारसे मूच्छित कर दिया || २३६|| इस प्रकार महाबलवान् एक लक्ष्मणने सिंहोदर की उस सभाको भयभीत कर विध्वस्त कर दिया || २३७॥ इस प्रकार सभाको विध्वस्त करता हुआ लक्ष्मण जब भवन से बाहर आंगण में निकला तब सैकड़ों अन्य योद्धाओंने उसे घेर लिया || २३८|| तदनन्तर युद्धके लिए तैयार खड़े हुए सामन्तों, हाथियों, घोड़ों और रथोंके द्वारा उत्पन्न परस्परकी धक्काधूमीसे बहुत भारी आकुलता उत्पन्न हो गयी ||२३९ || हाथों में नाना प्रकारके शस्त्र धारण करनेवाले उन सामन्तोंके साथ वीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001823
Book TitlePadmapuran Part 2
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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