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The Ninth Chapter The ten-headed king, Ravana, who was known to crush his enemies, went to steal the daughter named Tanudari, born from the queen of the Pravarajya, Avali. ||24|| Knowing that Lanka was devoid of the ten-headed king, the skilled Kharadushana, proficient in both Vidya and Maya, easily abducted Chandranakha. ||25|| What could the valiant Bhanukarna and Vibhishana do in Lanka, when the enemy, using his Maya, was abducting the girl? ||26|| Seeing that the army following him could not capture him alive in battle, Bhanukarna and Vibhishana returned. ||27|| Hearing this news, the son of Kaikasi, Ravana, became furious and his eyes became unbearable to look at. ||28|| Then, driven by pride, he was ready to go back, even though the sweat from the fatigue of his journey had not dried. ||29|| He took only a sword, not seeking help from anyone else, for in battle, the only true companion of the powerful is the sword. ||30|| As Ravana was about to leave, Mandodari, who clearly understood the state of the world, joined her hands and said, ||31|| "My Lord, it is certain that the girl is meant for another, for that is the way of the world." ||32|| Kharadushana has fourteen thousand celestial beings, all powerful and never retreating from battle. ||33|| Besides, he has mastered many thousands of Vidya, haven't you heard this from the people? ||34|| If a fierce battle ensues between you two, both equally powerful, there will be doubt about who will win. ||35|| Even if he is killed somehow, the girl, tainted by the act of abduction, cannot be given to another, she will only become a widow. ||36|| Moreover, the sun's rays have returned to your city, and the moon, known as "Alankaro-daya," shines brightly in the sky. ||37||
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________________ नवमं पर्व आवल्यां प्रवराज्जातां कन्यां नाम्ना तन्दुरीम् । गतः 'स्तेनयितुं यावद्यैमस्य परिमर्दकः ॥२४॥ ज्ञात्वाथ' निष्प्रभिस्तावल्लङ्कां वीतदशाननाम् । सुखं चन्द्रनखां जहे विद्यामायाप्रवीणधीः ॥ २५॥ शूरौ किं कुरुतामत्र भानु कर्णविभीषणौ । यत्रारिश्छिद्रमासाद्य कन्यां हरति मायया ॥ २६ ॥ ४ पृष्ठतश्च ततः सैयं गच्छत्ताभ्यां निवर्तितम् । जीवन्नेष रणे शक्तो गृहीतुं नेति चेतसा ॥२७॥ शुश्राव चागतो वार्तां तादृशीं कैकसीसुतः । जगाम च 'दुरीक्ष्यत्वं कोपावेशात् सुभीषणात् ॥२८॥ तत आगमनोद्भूतश्रमप्रस्वेदबिन्दुषु । स्थितेष्वेव पुनर्गन्तुमुद्यतो मानचोदितः ॥ २९ ॥ सहायं खड्गमेकं च जग्ग्राहान्यपराङ्मुखः । अन्तरङ्गः स एवैकः संग्रामे वीर्यशालिनाम् ॥३०॥ तावन्मन्दोदरी बद्ध्वा करद्वयसरोरुहम् । व्यज्ञापयदिति व्यक्तज्ञातलौकिकसंस्थितिः ॥ ३१ ॥ कन्या नाम प्रभो देया परस्मायेव निश्चयात् । उत्पत्तिरेव तासां हि तादृशी सार्वलौकिकी ॥३२॥ खेचराणां सहस्राणि सन्ति तस्य चतुर्दश । ये वीर्य कृतसंनाहाः समरादनिवर्तिनः ॥ ३३ ॥ बहून्यस्य सहस्राणि विद्यानां दर्पशालिनः । सिद्धानीति न किं लोकाद्भवता श्रवणे कृतम् ॥३४॥ प्रवृत्ते दारुणे युद्धे भवतोः समशौर्ययोः । संदेह एव जायेत जयस्यान्यतरं प्रति ॥३५॥ कथंचिच्च हतेऽप्यस्मिन् कन्याहरणदूषिता । अन्यस्मै नैव विश्राण्या केवलं ' विधवीभवेत् ॥३६॥ किं च सूर्यरजोमुक्ते त्वत्पुरे 'प्रत्यवस्थितम् । अलंकारोदये नाम्ना चन्द्रोदरनभश्वरम् ॥३७॥ एक दिन यमका मान मर्दन करनेवाला दशानन राजा प्रवरकी आवली रानीसे समुत्पन्न तनूदरी नामा कन्याका अपहरण करनेके लिए गया था ||२४|| सो विद्या और माया दोनों में ही कुशल खरदूषणने लंकाको दशाननसे रहित जानकर चन्द्रनखाका सुखपूर्वक - 3 - अनायास ही अपहरण कर लिया ||२५|| यद्यपि शूरवीर भानुकर्ण और विभीषण दोनों ही लंका में विद्यमान थे पर जब शत्रु मायासे छिद्र पाकर कन्याका अपहरण कर रहा था तब वे क्या करते ? ||२६|| उसके पीछे जो सेना जा रही थी भानुकर्ण और विभीषणने उसे यह सोचकर लौटा लिया कि यह जिन्दा युद्ध में पकड़ा नहीं जा सकता ||२७|| लंका में वापस आनेपर दशाननने जब यह बात सुनी तो भयंकर क्रोध से वह दुरीक्ष्य हो गया अर्थात् उसकी ओर देखना कठिन हो गया ||२८|| तदनन्तर बाहर से आनेके कारण उत्पन्न परिश्रम से उसके शरीरपर पसीने की जो बूँदें उत्पन्न हुई थीं वे सूख नहीं पायी थीं, कि अभिमान से प्रेरित हो वह पुन: जानेके लिए उद्यत हो गया ||२९|| उसने अन्य किसीकी अपेक्षा न कर सहायता के लिए सिर्फ एक तलवार अपने साथ ली, सो ठीक ही है क्योंकि युद्धमें शक्तिशाली मनुष्योंका अन्तरंग सहायक वही एक तलवार होती है ||३०|| ज्योंही दशानन जानेके लिए उद्यत हुआ त्योंही स्पष्ट रूपसे लोककी स्थितिको जाननेवाली मन्दोदरी दोनों हस्तकमल जोड़कर इस प्रकार निवेदन करने लगी ||३१|| कि हे नाथ! निश्चयसे कन्या दूसरेके लिए ही दी जाती है क्योंकि समस्त संसारमें उनकी उत्पत्ति ही इस प्रकारकी होती है ||३२|| खरदूषण के पास चौदह हजार विद्याधर हैं जो अत्यधिक शक्तिशाली तथा युद्धसे कभी पीछे नहीं हटनेवाले हैं ||३३|| इसके सिवाय उस अहंकारीको कई हजार विद्याएँ सिद्ध हुई हैं यह क्या आपने लोगोंसे नहीं सुना ? ||३४|| आप दोनों ही समान शक्तिके धारक हो अतः दोनोंके बीच भयंकर युद्ध होनेपर एक दूसरे के प्रति विजयका सन्देह ही रहेगा ||३५|| यदि किसी तरह वह मारा भी गया तो हरणके दोषसे दूषित कन्या दूसरेके लिए नहीं दी जा सकेगी, उसे तो मात्र विधवा ही रहना पड़ेगा ||३६|| इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि तुम्हारे १. चोरयितुम् । गतस्ते नयितुम् म । २. रावणः । ३. खरदूषणः । ४. गतं म. । ५. गच्छताभ्यां म । ६. दुरीक्षत्वं म. । ७. अविधवा विधवा संपद्यमाना भवेदिति विधवीभवेत् । विधवा भवेत् म., ब. विधवीकृता ख. । ८. प्रत्यवस्थितः ब. । २७ Jain Education International २०९. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001822
Book TitlePadmapuran Part 1
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages604
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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