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204 Padma Purana They, both, having attained supreme prosperity, entered their respective cities, Kishkindha and Ayodhya, which were like the city of Indra, adorned with golden mansions and endowed with worthy rulers. || 499 || Ravana, bearing great prosperity and fame, was proceeding towards the peak of Trikuta, with his ministers bowing down to him. He was the best, and like the moon in the bright fortnight, he was constantly filled with the wealth of his devotees. He was riding on the beautiful Pushpaka Vimana, which could travel at will, adorned with a garland of jewels and a row of lofty peaks. He was endowed with supreme patience and had attained the fruits of his good deeds. || 500-503 || Then, hordes of Rakshasas, filled with joy, adorned with various ornaments and wearing the finest clothes, followed him, shouting auspicious words like, "Victory to you, O Lord! May you prosper, live long, grow, and continue to attain progress." || 504-505 || They were mounted on various vehicles like lions, tigers, elephants, horses, and swans. They were filled with various illusions, their eyes were wide with joy, and they were adorned with the forms of the gods. Their brilliance filled the directions, and their radiance illuminated all the directions. They were moving through forests, mountains, and oceans. || 506-507 || They saw the ocean, which was deep and boundless, filled with huge crocodiles, dark like a Tamala forest, with waves as high as mountains, terrifying with many large serpents like those in the netherworld, and adorned with various jewels. They were filled with wonder and exclaimed, "Oh! Indeed!" and other words of wonder. Thus, many Rakshasas followed Ravana. || 508-510 || 1. Sadmani म. 2. Bandha म.
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________________ २०४ पद्मपुराणे ते शक्रनगराभिख्ये पुरे काञ्चनसद्मनी' । उचितस्वामिसंयुक्ते जग्मतुः परमां श्रियम् ॥ ४९९ ॥ सौमालिरपि बिभ्राणः श्रियं कीर्तिं च भूयसीम् । प्रत्यवस्थितसामन्तैः प्रणमद्भिः समुत्तमः ॥ ५०० ॥ पूर्यमाणः सदा सेव्यैर्विभवैः प्रतिवासरम् । बन्धुः कुमुदखण्डानां सितपक्षे करैरिव ॥ ५०१ ॥ रत्नदामाकुलं तुङ्गं शृङ्गपङ्क्तिविराजितम् । आरुह्य पुष्पकं चारु विमानं कामगत्वरम् ॥५०२" युक्तः परमधैर्येण प्राप्तपुण्यफलोदयः । त्रिकूटशिखरं भूत्या परया प्रस्थितः कृती ॥ ५०३ ॥ ततो रक्षोगणास्तस्य प्रमोदं परमं श्रिताः । चित्रालंकारसंपन्ना वरीयोवस्त्रधारिणः ॥ ५०४ ॥ जय नन्द चिरं जीव वर्धस्वोदेहि संततम् । इति मङ्गलवाक्यानि प्रयुञ्जाना महारवाः ॥ ५०५ ॥ सिंहशार्दूलमातङ्गवाजिहंसादिसंश्रिताः । नानाविभ्रमसंयुक्ताः प्रमोदविकचेक्षणाः ॥ ५०६ ॥ विभ्राणास्त्रिदशाकारं तेजोव्याप्तविहायसः । आलोकितसमस्ताशाः काननादिसमुद्रगाः ॥ ५०७ ॥ अदृष्टपारगम्भीरं महाग्राहसमाकुलम् । तमालवनसंकाशं गिरितुङ्गोर्मिसंहतिम् ॥ ५०८ ॥ रसातलमिवाने कनागनायक भीषणम् । नानारत्नकरवातरञ्जितोद्देशराजितम् ॥ ५०९ ॥ पश्यन्तो विस्मयापूर्णाः समुद्रं विविधाद्भुतम् । अनुजग्मुरहो हीति मुहुर्मुखरिताननाः ॥५१०॥ धारण करनेवाला किष्कुपुर नगर दिया। इस प्रकार सूर्यरज और ऋक्षरज दोनों ही अपनी कुलपरम्परासे आगत नगरोंको पाकर सुखसे रहने लगे || ४९८ || जिनकी शोभा इन्द्रके नगरके समान थी, और जिनमें सुवर्णमय भवन बने हुए थे ऐसे वे दोनों नगर योग्य स्वामीसे युक्त होकर परम लक्ष्मीको प्राप्त हुए ||४९९ || बहुत भारी लक्ष्मी और कीर्तिको धारण करनेवाले दशाननने कृतकृत्य होकर बड़े वैभवके साथ त्रिकूटाचलके शिखरकी ओर प्रस्थान किया। उस समय शत्रु राजा प्रणाम करते हुए उससे मिल रहे थे। वह स्वयं उत्तम था और जिस प्रकार शुक्ल पक्षमें चन्द्रमा किरणोंसे प्रतिदिन पूर्ण होता रहता है उसी प्रकार वह भी प्रतिदिन सेवनीय वैभवसे पूर्ण होता रहता था । रत्नमयी मालाओंसे युक्त, ऊंचे शिखरोंकी पंक्तिसे सुशोभित, सुन्दर और इच्छानुसार गमन करनेवाले पुष्पक विमानपर आरूढ़ होकर वह जा रहा था। वह परम धैर्यंसे युक्त था तथा पुण्यके फलस्वरूप अनेक अभ्युदय उसे प्राप्त थे ।।५०० - ५०३ ।। तदनन्तर परम हर्षको प्राप्त, नाना अलंकारोंसे युक्त एवं उत्तमोत्तम वस्त्र धारण करनेवाले राक्षसों के झुण्ड के झुण्ड जोर-जोरसे निम्नांकित मंगल वाक्योंका उच्चारण कर रहे थे कि हे देव ! तुम्हारी जय हो, तुम समृद्धिको प्राप्त होओ, चिरकाल तक जीते रहो, बढ़ते रहो और निरन्तर अभ्युदयको प्राप्त होते रहो ।।५०४- ५०५ ।। वे राक्षस, सिंह, शार्दूल, हाथी, घोड़े तथा हंस आदि वाहनोंपर आरूढ़ थे । नाना प्रकारके विभ्रमोंसे युक्त थे । हर्षसे उनके नेत्र फूल रहे थे । वे देवोंजैसी आकृतियोंको धारण कर रहे थे। अपने तेजसे उन्होंने दिशाओंको व्याप्त कर रखा था । उनकी प्रभासे समस्त दिशाएँ जगमगा रही थीं और वे वन, पर्वत तथा समुद्र आदि सर्वं स्थानोंमें चल रहे थे ।।५०६-५०७ || जिसका किनारा नहीं दीख रहा था, जो अत्यन्त गहरा था, बड़े-बड़े ग्राह - मगरमच्छों से व्याप्त था, तमाल वनके समान श्याम था, पर्वतों जैसी ऊँची-ऊँची तरंगों के समूह उठ रहे थे, जो रसातलके समान अनेक बड़े-बड़े नागों – सर्पोंसे भयंकर था, और नानाप्रकारके रत्नोंकी किरणोंके समूहसे अनुरक्त स्थलोंसे सुशोभित था ऐसे अनेक आश्चर्योंसे युक्त समुद्रको देखते हुए वे राक्षस आश्चयंसे भर रहे थे । अहो, ही, आदि आश्चर्यव्यंजक शब्दोंसे उनके मुख बार-बार मुखरित हो रहे थे । इस प्रकार अनेक राक्षस दशाननके पीछे-पीछे चल रहे थे ॥ ५०८-५१०॥ १. सद्मनि म । २. बन्धः म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001822
Book TitlePadmapuran Part 1
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages604
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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