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________________ प्यार पूजा, प्यार में, परमात्मा का वास है । प्यार जो करता वही आस्तिक जगत में, प्यार सच्चा धर्म है, विश्वास है ! पूजता तो मैं तुम्हें हूं मीत मेरे, मूर्ति, मंदिर और मस्जिद, सब बहाने हैं। मैं हृदय के रक्त से लिखता तुम्हें हूं, ये ग़ज़ल, ये गीत तो सारे बहाने हैं। और, बड़े मज़े की बात है, कि प्रेमीजन को प्रेम में जिस आनंद का अनुभव होता है, उसका जन्म, वस्तुतः पीड़ा से, अतृप्ति से होता है। जितनी प्यास बुझती नहीं है, तत्काल उससे कई गुनी बढ़ जाती है। किंतु, प्यार का स्वाद जिसे लग जाता है, वह फिर बाज़ नहीं आता । प्यार के इस दर्द का अपना मज़ा, अछूते रह गए इस रोग से, वे न समझेंगे इसे ! यार की तस्वीर नज़रों में फिरे, गुनगुनाहट कंठ में आने लगे; भावना रूपांतरित हो शब्द में, छंद अपने आप बन जाने लगे; गीत गाने का अलग अपना मज़ा, किंतु, जिनके ओंठ थिरके ही नहीं, वे न समझेंगे इसे ! महावीर वाणी भाग 2 ओशो के अनुसार चाहे महावीर हों, चाहे बुद्ध, चाहे मीरा, चाहे जीसस, सबके संदेश का सार प्रेम ही है। महावीर की अहिंसा, बुद्ध की करुणा, मीरा का नृत्य या उसकी दीवानगी, जीसस की सेवा-सभी मूलतः प्रेम ही हैं, शब्दों का अंतर है। अब, बाहर से महावीर को समझेंगे तो लगेगा, इस व्यक्ति से प्रेम का क्या संबंध ? बिलकुल रूखे-सूखे, एकदम शांत, मौन, आत्म- केंद्रित । मेरी समझ है कि महावीर का प्रेम केंद्र से परिधि की ओर प्रवाहित है। इसीलिए परिधि तक आते-आते एकदम ठंडा-सा प्रतीत होने लगता है-न होने के बराबर - ऊष्मा - विहीन । ऐसा ही बुद्ध का प्रेम यानी करुणा है। जीसस या मीरा का प्रेम, परिधि से केंद्र की ओर गतिशील है, प्रवाहमान है, इसलिए बाहर बहुत - बहुत व्यक्त है – सेवा-शुश्रूषा के रूप में अथवा नृत्यके रूप में, व्यथा की अभिव्यक्ति के रूप में । मीरा की दीवानगी या मस्ती बाहर से बहुत तीव्र, बहुत ऊष्मामय । वही मस्ती भीतर, केंद्र पर पहुंच कर महावीर की भांति ही मौन और शांत हो जाती है। मीरा का प्रेम व्यक्ति केंद्रित है। महावीर के प्रेम में फैलाव है। इसलिए मीरा का प्रेम दिखाई पड़ जाता है, महावीर का नहीं । महावीर के गहन प्रेम की गहराई से जो वीणा निःसृत हुई, उसे पंडित नहीं समझ सके। वे महावीर का त्याग, उनकी तपस्या, महल और उनके द्वारा छोड़ी गई संपत्ति के हिसाब-किताब में ही उलझे रहे । कारण स्पष्ट है। उनके पास तो मीरा में दृश्य प्रेम को Jain Education International VI For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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