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________________ महावीर-वाणी भाग 2 समझने का चित्त भी नहीं होता, फिर महावीर के अदृश्य प्रेम को वे मूढ़ समझ ही कैसे सकते हैं? महावीर को, महावीर के प्रेम को समझने के लिए जिस चित्त की, जिस चेतना की अपेक्षा है, वह पहली बार ओशो के रूप में हमें सुलभ हुई है। एक प्रज्ञापुरुष दूसरे प्रज्ञापुरुष के वचनों की सही-सही व्याख्या मात्र इसीलिए कर पाने में सक्षमता को प्राप्त नहीं हो सकता कि वह समान कोटि का है, उसके लिए अभिव्यक्ति की परिपूर्णता अनिवार्य है। ओशो ने 'महावीर : मेरी दृष्टि में कहा है कि महावीर बारह वर्ष तक जो जड़वत मौन में रहे, वह जैसा कि पंडित कहते हैं, मोक्ष के लिए उनकी साधना नहीं थी, बल्कि वह महावीर की साधना, अभिव्यक्ति की साधना थी। क्योंकि महावीर का प्रयास था कि न केवल चेतन तक उनका संदेश पहुंचे, बल्कि जड़ से भी उनका सम्वाद हो सके और उसके विकास को भी त्वरा मिले। __ ओशो की अभिव्यक्ति की कोई साधना है या नहीं, मुझे नहीं मालूम। किंतु, इतना मैं अवश्य अनुभव करता हूं कि अभिव्यक्ति पर ओशो का जो कमांड है, जो अधिकार है 'न भूतो, न भविष्यति' की उक्ति उस पर पूरी तरह घटित होती है। प्रसंग है, इसलिए कह रहा हूं। शब्द चाहे अंग्रेजी का हो, चाहे हिंदी का, चाहे उर्दू का; ओशो को उसकी व्युत्पत्ति का पता है। लैटिन से आया या ग्रीक से; उसका रूप क्या था; अर्थ क्या था; ओशो बतलाएंगे। यही बात संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फारसी सभी के लिए लागू होती है। महावीर के दुरूह पारिभाषिक शब्दावली की आत्मा की गहराई में यदि ओशो न उतारते तो हम उससे अपरिचित ही रह जाते। ओशो के अनुसार मार्ग दो ही हैं : एक महावीर का, एक मीरा का। महावीर का मार्ग आक्रमण का है, मीरा का समर्पण का। महावीर ने इसीलिए ईश्वर को इनकार कर दिया। मीरा ने कृष्ण को परमात्मा का प्रतीक बना लिया। महावीर 'तू' को मिटा कर 'मैं' को बचाते हैं, मीरा 'मैं' को मिटा कर 'तू' को बचने देती है। दोनों मार्गों की मंजिल एक ही है : 'अद्वैत'। महावीर का मार्ग पौरुष का, साहस का, निर्भीकता का, असुरक्षा का... । इसके विपरीत मीरा का मार्ग स्त्रैण चित्त वाले व्यक्ति का, दूसरे के संरक्षण का, आश्रय का...। महावीर, जैसे वृक्ष हैं- स्वनिर्भर; मीरा, जैसे लतिका है-पर-निर्भर। यों समझें कि एक छोटा बच्चा है। मां की उंगली छोड़ कर बीहड़, निर्जन मार्ग पर अकेला चल पड़े; आपदाओं, बाधाओं से जूझता हुआ, अंत में गंतव्य तक पहुंच जाए-यह महावीर का मार्ग है। इसके विपरीत, बच्चा मां को अपनी उंगली पकड़ा दे; निश्चितता के साथ, मां के सहारे, उसके संरक्षण में, हंसता-खेलता हुआ वहीं पहुंच जाए-यह मीरा का मार्ग। अब, एक संयोग देखिए। महावीर जो पौरुष के अप्रतिम प्रतीक हैं, उनके साथ एक दुर्घटना घट गई। महावीर का धर्म जैनों के–बनिया-व्यापारियों के हाथ पड़ गया, जो अपनी कायरता, अपनी हिसाबी-किताबी मनोवृत्ति और सुरक्षितता-प्राप्ति की अथक चेष्टा के लिए जग-जाहिर हैं। गैर-जैनों ने महावीर को जैनों के माध्यम से समझने का प्रयत्न किया, फलतः वे महावीर को ही गलत समझ बैठे। महावीर के अनुयायियों ने अपने हास्यास्पद आचरण एवं व्यवहार से उनकी देशनाओं की दुर्गति कर दी। महावीर की अहिंसा उनकी कायरता के लिए ढाल बन गई। महावीर के वचनों के अर्थों के अनर्थ हो गए। और महावीर के व्यक्तित्व को सर्वाधिक हास्यास्पद बनाया, सब से अधिक हानि पहुंचाई, महावीर की हूबहू नकल करने वाले साधु-संन्यासियों ने, कार्बन कापियों ने। कहां महावीर की अनारोपित, स्वाभाविक निर्दोष नग्नता और कहां इन तथाकथित साधुओं की आरोपित, साधी गई, सप्रयास नग्नता। इस नग्नता के मूल में अहंकार है, महत्वाकांक्षा है। एक दिगंबर मुनि को मैं जानता हूं, एक तुकबंदी करने वाले जैन कवि ने उन्हें 'आधुनिक महावीर' कहा अपनी एक कविता में, और वे हैं कि स्वीकार कर रहे हैं। एक और जैन मुनि हैं, वे ललितपुर के निकटस्थ एक गांव के हैं, आजकल वे राजस्थान में हैं। उनके जाने कितने पत्र मेरे पास आ चुके हैं। में उत्तर देने योग्य भी उन्हें नहीं पाता। अब, उनका एक लेटेस्ट पत्र आया है। इसमें उन्होंने मुझे लिखा है : VII Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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