________________
संन्यास प्रारंभ है, सिद्धि अंत
सब बदल जाता है, हिमालय बदलता हुआ नहीं मालूम होता - इस अर्थ में प्रतीक है। ऐसी चित्त की अवस्था हो जाये, जहां कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई कंपन नहीं होता, कोई बढ़ता नहीं, कोई गिरता नहीं। सब ठहर जाता है; जैसे कोई झील बिलकुल निस्तरंग हो ये शून्य आकाश हो, जहां बादल का एक टुकड़ा भी न तैरता हवा का एक झोंका भी न आता हो — ऐसी अवस्था में चित्त नहीं रह जाता, मन नहीं रह जाता। ऐसी अवस्था में सिर्फ आत्मा रह जाती है।
तो हम ऐसी व्याख्या कर सकते हैं कि जब तक आत्मा कंपती है, उस कंपन का नाम मन है। मन कोई वस्तु नहीं है, मन सिर्फ कंपती हुई आत्मा का नाम है | और जब आत्मा नहीं कंपती, और ठहर जाती है, स्वस्थ हो जाती है, स्वयं में रुक जाती है, शैलेशी बन जाती है, तब मन नहीं रह जाता। जब मन नहीं रह जाता है, तो जो शेष रह जाता है, वहां कोई कंपन नहीं है ।
इस अवस्था को पाने के लिए जरूरी होगा कि हम नयी की जो विक्षिप्त तलाश करते हैं, वह न करें। और मन जब मांग करता है नयी उत्तेजनाओं की, तब हम सावधान रहें। और जब मन कहता है, खोजो नये को, तो हम समझें कि मन क्या मांग रहा है। मन मांग रहा है कि मुझे नया ईंधन दो, ताकि मैं कंपता रहूं।
पुराने से मन बड़े जल्दी ऊब जाता है - नये से भी ऊब जायेगा। आज नया है, कल पुराना हो जायेगा। मन की वृत्ति को जो निरंतर भरता रहे नये से, बिना यह समझे कि मन सिर्फ कंपने की कोशिश कर रहा है, नये कंपन तलाश कर रहा है-वह आदमी कभी भी समाधि को उपलब्ध नहीं होगा ।
और ऐसी अवस्था में हम सदा ही दूसरे पर भटकते रहते हैं। दूसरा ही उत्तेजना दे सकता है । उत्तेजना सदा बाहर से आती है। बाहर से शांति के आने का कोई उपाय नहीं है। शांति सदा भीतर जन्मती है, उत्तेजना सदा बाहर से आती है। अशांति बाहर से आती है, शांति भीतर से बहती है। और जब तक हम बाहर लगे हुए हैं... ।
मुल्ला नसरुद्दीन युद्ध के दिनों में सेना में भर्ती हुआ था। उसका नया शिक्षण चल रहा था। और उसके कैप्टन ने एक दिन उससे पूछा कि नसरुद्दीन, जब तुम बंदूक साफ करते हो, तो सबसे पहले क्या करते हो ? बंदूक साफ करने के पहले सबसे पहला काम क्या है ?
नसरुद्दीन ने कहा, ‘सबसे पहला काम, पहले मैं नंबर देखता हूं।' उस कैप्टन ने कहा कि नंबर से सफाई का क्या संबंध ? नसरुद्दीन कहा, 'जस्ट टु बी श्योर दैट दिस इज माइ ओन, आइ एम नाट क्लीनिंग सम बडी एल्स' – यह पक्का करने के लिए कि बंदूक अपनी ही है, किसी और की बंदूक साफ नहीं कर रहे हैं।
यह जो नसरुद्दीन कह रहा है, बड़ी कीमत की बात कह रहा है। जिंदगी में करीब-करीब हम दूसरों की बंदूकें साफ करते रहते हैं, अपनी बंदूक तो गंदी ही रह जाती है। दूसरों की साफ करने के कारण फुर्सत ही नहीं मिलती कि अपने पर ध्यान चला जाये।
जो व्यक्ति भी उत्तेजनाओं में रसलीन है, वह दूसरों की बंदूकें साफ करने में जीवन बिता देता है। दूसरों को ठीक करने में, दूसरों को सुधारने में, दूसरों को सुंदर बनाने में, दूसरों को मित्र बनाने में, दूसरों को अपने निकट लाने में, दूसरों का भोग करने में — पर सारा जीवन दूसरे पर लगा रहता है। और दूसरे काफी हैं ! दूसरों का कोई अंत नहीं है।
सार्त्र ने एक अदभुत बात कही है। कहा है कि अदर इज द हेल – दूसरा नरक है। बात थोड़ी सही है। हम अपना नरक दूसरे के ही माध्यम से पैदा करते हैं । आप खुद अपने नरक को देखें । आदमी आदमी का अपना-अपना नरक है। हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है। मुसकराहटें तो ऊपर हैं और धोखे की हैं, और चिपकायी गयी हैं, पेंटेड हैं- भीतर नरक है। और हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है; लेकिन वह नरक आप अकेले पैदा नहीं कर सकते हैं; उसके लिए आपको दूसरों की जरूरत है। दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता ।
Jain Education International
559
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org