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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 थोड़ा सोचें, क्या आप अकेले नरक पैदा कर सकते हैं ? दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता। लेकिन, अगर यह सच है कि दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता, तो हम दूसरों के पीछे इतने पागल क्यों हैं ? क्योंकि यह आशा बंधी है, कि दूसरों के बिना स्वर्ग भी पैदा नहीं हो सकता । दूसरे के द्वारा स्वर्ग पैदा हो सकता है, इसी कोशिश में तो हम नरक पैदा कर लेते हैं। स्वर्ग का स्वप्न नरक को जन्म देता है। सब नरकों के द्वार पर लिखा है, स्वर्ग। तो जिस दरवाजे पर आप स्वर्ग लिखा देखें, जरा सोचकर प्रवेश करना, क्योंकि नरक बनानेवाले काफी कशल हैं। वे अपने दरवाजे पर नरक नहीं लिखते. फिर कोई प्रवेश ही नहीं करेगा। नरक के दरवाजे पर सदा स्वर्ग लिखा होता है-वह दरवाजे पर ही होता है। भीतर जाकर, जैसे-जैसे भीतर प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे प्रगट होने लगता है। __दूसरे से जो स्वर्ग की आशा करता है, दूसरे के द्वारा उसका नरक निर्मित हो जायेगा। साञ ठीक कहता है कि दि अदर इज द हेल। पर सार्च ने कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया कि दूसरा नरक क्यों है। ___ वह दूसरे के कारण नरक नहीं है । दूसरे में स्वर्ग की वासना ही नरक का जन्म बनती है। तो बहुत गहरे में देखने पर मेरी वासना ही, कि दूसरे से मैं स्वर्ग बना लूं, नरक का कारण होती है। और जो व्यक्ति दूसरे में उलझा है, वह सदा कंपित रहेगा। आपने कभी देखा कि आपके जितने कंपन हैं, वे दूसरे के संबंध में होते हैं ? क्रोध के, प्रेम के, घृणा के, मोह के, लोभ के-सब दूसरे के संबंध में होते हैं। थोड़ी देर को सोचें कि आप इस पृथ्वी पर अकेले रह गये हैं, क्या आपके भीतर कोई कंपन रह जायेगा? सारा संसार अचानक खो गया. आप अकेले हैं, तो कोई कंपन नहीं रह जायेगा। क्योंकि कंपन के लिए दसरे से संबंधित होना जरूरी है: दसरे और मेरे बीच वासना का सेतु बनना जरूरी है, तब कंपन होगा। आदमी जब गहन भीतर डूबता है आंख बंद करके, बाहर को भूल जाता है तो वह ऐसे ही हो जाता है, जैसे पृथ्वी पर अकेला है; जैसे और कोई भी न रहा। सब होंगे लेकिन जैसे नहीं रहे; मैं अकेला हो गया। इस अकेलेपन में शैलेशी अवस्था पैदा होती है। इस अकेलेपन में. इस नितांत भीतरी एकांत में, सब कंपन ठहर जाते हैं और अकंप का अनुभव होता है। सूत्र महावीर का हम लें। 'जब सर्वत्रगामी केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है साधक, तब जिन तथा केवली होकर लोक और अलोक को जान लेता - 'जब केवलज्ञानी जिन लोक-अलोकरूप समस्त संसार को जान लेता है, तब मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध हो जाता है और शैलेशी (अचल, अकंप) अवस्था प्राप्त होती है।' ___ महावीर ने पिछले सूत्र में कहा है कि जब अंतर प्रकाश का उदय होता है, जब कोई जीवन-ऊर्जा पूरी तरह भीतर की तरफ मुड़ जाती इस भीतर की तरफ मुड़ जाने का नाम ही प्रतिक्रमण-अपनी तरफ आना है। तो प्रतिक्रमण कोई क्रिया नहीं है कि आपने बैठकर कर ली। प्रतिक्रमण चेतना का, ऊर्जा का अपनी तरफ लौटना है । यह बड़ी गहन घटना है। लोग मुझे आकर कहते हैं कि आज प्रतिक्रमण करके आ रहे हैं। प्रतिक्रमण करके कहीं कोई आता है? प्रतिक्रमण का मतलब ही है कि बाहर आना नहीं, भीतर जाना शुरू हुआ। प्रतिक्रमण ऊर्जा का भीतर की तरफ लौटना है। 560 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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