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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 जिस व्यक्ति को यह बोध हो जाता है, वह न तो शरीर को भोगता है और न शरीर को दबाता है। वह शरीर से कोई संबंध ही स्थापित नहीं करता। अगर वह भोजन भी करता है, तो शरीर ही भोजन करता है-वह भीतर देखता ही रहता है। अगर वह बीमार पड़ता है, तो शरीर ही बीमार पड़ता है—वह भीतर देखता ही रहता है। वह हर हालत में अयोग में ठहरा रहता है। वह भीतर साक्षी बना रहता है। शरीर जीये कि मरे, कि भूखा हो कि पेट भरा हो, कि शरीर को सुविधा हो कि असुविधा हो—सभी कुछ शरीर को हो रहा है। इस संसार में जो भी हो रहा है, वह शरीर के साथ हो रहा है, मेरे साथ नहीं हो रहा है। मेरे और शरीर के बीच फासला, स्पेस पैदा हो जाये-उस फासले का नाम संयम है। न तो भोगी फासला पैदा कर पाता है, क्योंकि वह शरीर के माध्यम से भोगता है। और जिस माध्यम से हम भोगते हैं, उससे हम जुड़ जाते हैं। और न तथाकथित योगी फासला पैदा कर पाता है, क्योंकि वह शरीर के माध्यम से लड़ता है। और जिससे हम लड़ते हैं, उससे भी जुड़ जाते हैं। ___ मित्र से भी संबंध हो जाता है, शत्रु से भी। शत्रुता संबंध का एक नाम है। जैसे मित्रता एक संबंध है, वैसे शत्रुता एक संबंध है। तो जो शरीर से मित्रभाव रखे हुए हैं, भोग रहे हैं, वे भी बंधे हैं; जो शरीर से शत्रु-भाव रखते है, वे भी उतने ही बंधे हैं। एक का बंधन प्रेम का है. एक का बंधन घणा का है लेकिन बंधन मौजद है। महावीर संयम तब कहते हैं, जब कोई बंधन न रहे-न मित्रता के, न शत्रुता के। न शरीर में कोई रस है, न शरीर से कोई विरसता है। न शरीर से कोई राग है, न कोई विराग है। शरीर अलग है, मैं अलग हूं-ऐसी स्पष्ट प्रतीति का नाम संयम है। शरीर में हम जन्मों-जन्मों से रह रहे हैं, लेकिन हमें इस बात का पता नहीं कि शरीर में हम रह रहे हैं। शरीर के साथ हमारा तादात्म्य आइडेन्टिटी हो गयी है: हम जड गये हैं। ऐसा लगने लगा है, मैं शरीर हं। यंत्र के साथ चैतन्य जड गया और एक हो गया है। महावीर कहते हैं, यह योग ही संसार है। इस योग के पार हो जाना ही मुक्ति है, विमुक्ति है; परम आनंद और परम सत्य की प्रतीति है। शरीर में हम कितना ही जीये हों, इससे कुछ भी न होगा। बच्चे तो बंधे ही होते हैं-उनका बंधा होना स्वाभाविक है-बूढ़े भी बंधे होते हैं ! भोगी तो बंधे होते हैं- उनका बंधा होना स्वाभाविक है- जिनको हम योगी मानते हैं, वे भी बंधे होते हैं ! __ भोग का एक तरह का असंयम है, योग का दूसरी तरह का असंयम है। संयमी वह है, जिसने असंयम की संभावना ही तोड़ दी। संभावना है शरीर से जुड़े होना। संभावना है शरीर और अपने को एक मान लेना। यह एकता जितनी गहरी हो जाए, उतना असंयम होगा। यह एकता जितनी कम हो जाए, उतना संयम होगा। और जिस दिन यह एकता बिलकुल टूट जाये और साफ हो जाये- जैसा कि पुरानी कथाएं कहती हैं कि हंस जैसे पानी और दूध को अलग-अलग कर लेता है- जिस दिन हमारा विवेक शरीर और चेतना को अलग-अलग कर ले हंस की तरह, उस दिन संयम की अंतिम सीढ़ी उपलब्ध होती है; मंजिल उपलब्ध होती है। - इसलिए ज्ञानियों ने आत्मा को हंस भी कहा है; विवेक को, चेतना को हंस भी कहा है; और जो व्यक्ति इस स्थिति को पैदा हो जाता है, उसे परमहंस कहा है। परमहंस का अर्थ है कि जिसने अपने भीतर हंस की तरह दूध और पानी को अलग-अलग कर लिया। हंस करता है या नहीं, पता नहीं-कविता की बात है ! लेकिन आदमी कर सकता है। और दूध और पानी चाहे अलग न भी किये जा सकें-क्योंकि दूध और पानी दोनों ही एक तल के पदार्थ हैं- शरीर और चेतना अलग किये जा सकते हैं, क्योंकि अलग हैं ही। दोनों का आयाम अलग। दोनों का ढंग अलग। दोनों का होना अलग। दोनों का मिलना ही चमत्कार है, दोनों का अलग होना तो बड़ा सरल है। आपने बड़ी मेहनत की है दोनों को एक कर लेने की, तब भी एक नहीं हो गये हैं। सिर्फ भ्रांति है एक हो जाने की। सिर्फ खयाल है एक हो जाने का। इसलिए महावीर कहते हैं, बंधन सिर्फ मन के हैं, भाव के हैं—प्रोजेक्शन हैं। वस्तुतः कोई बंधन नहीं है। 510 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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