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________________ आत्मा का शरीर के पीछे छाया की तरह चलना असंयम है। आत्मा का प्रवाह शरीर की तरफ जाने से रुक जाये, ठहर जाये, आत्मा में ही फिर लीन हो जाये; और आत्मा गुलाम न रहे, मालिक हो जाये—उस अवस्था का नाम संयम है। इसे ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि महावीर की पूरी साधना-पद्धति संयम की ही पद्धति है। संयम का अर्थ शरीर को दबा रखना नहीं है; क्योंकि जिसे हम दबाते हैं, उससे हम दब भी जाते हैं। ___ अगर किसी व्यक्ति की छाती पर आप बैठ जायें उसे दबाकर, तो आप छाती पर बैठे हैं, यह सच है, और वह नीचे आपके दबा है, यह भी सच है लेकिन आप वहां से हट भी नहीं सकते। क्योंकि आपके हटते ही वह व्यक्ति मुक्त हो जायेगा। तो जहां वह पड़ा है, वहीं आप भी पड़े रहेंगे। उसे दबाये रखने का अर्थ होगा कि आप भी उससे रत्तीभर आगे नहीं जा सकते। इसलिए जो व्यक्ति शरीर को दबा लेते हैं, वे शरीर के मालिक तो नहीं होते, मालकियत के वहम में होते हैं। और जहां शरीर को दबाये रखते हैं, वहीं उनकी आत्मा भी रुकी रह जाती है; अटकी रह जाती है। इसलिए तथाकथित साधु शरीर से बंधा हुआ होता है उसी तरह, जैसा तथाकथित गृहस्थ बंधा होता है __घर से बंधे हुए आदमी का नाम गृहस्थ है। घर है आपका शरीर, जहां चेतना आवास कर रही है। फिर इस शरीर की मालकियत भोग के लिए हो आपके ऊपर या योग के लिए हो आपके ऊपर-दोनों ही स्थितियों का नाम असंयम है। संयम का अर्थ है : मेरे भीतर ऐसे साफ हो जाये मेरी चेतना; शरीर साफ हो जाये; दोनों के बीच कोई सेतु न रह जाये, कोई संबंध न रह जाये-न भोग और न योग का। इसलिए महावीर 'योग' शब्द का उपयोग नहीं करते हैं। बल्कि बड़ी हैरानी होगी आपको जानकर कि महावीर योग शब्द का अर्थ मनुष्य का परमात्मा से जुड़ जाना, ऐसा नहीं करते, जैसा पतंजलि करते हैं। महावीर कहते हैं. योग का अर्थ है, संसार और मनुष्य का शरीर से जुड़ जाना। इसलिए महावीर ने परम स्थिति को 'अयोगी' कहा है-जहां संबंध टूट जाता है। योग का अर्थ है जोड़। तो तब तक शरीर और आत्मा जुड़े हैं, तब तक योग की अवस्था है। जिस दिन शरीर और आत्मा का संबंध छूट जाता है; टूट जाता है सेतु बीच से, उस दिन 'अयोग' ! इसलिए महावीर ने अयोग को परम अवस्था कहा है, जहां कोई संबंध नहीं रह जाते, सब जोड़ टूट जाते हैं। इस अयोग को साधने के लिए दमन, दबाना मार्ग नहीं हो सकता। इस संयम को साधने का मार्ग बोध होगा, ज्ञान होगा-महावीर ने कहा : विवेक होगा—इस बात का ठीक-ठीक बोध कि शरीर अलग है और मैं अलग हूं। 509 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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