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कल्याण-पथ पर खड़ा है भिक्षु जगत में वही मिल सकता है, जो छोड़ा जाता है। सब चीजों के मूल्य अंततः समान हो जाते हैं । अगर क्षणिक सुख ही छोड़ा है, तो महावीर कहते हैं, स्वर्ग मिल सकता है । लेकिन वह स्वर्ग भी क्षणिक होगा। अगर मोक्ष चाहिए, तो क्षणिक सुख को छोड़ने से नहीं मिलने वाला है; शाश्वत आत्मा को जानने से मिलनेवाला है। उसका त्याग से कोई संबंध नहीं। उसका भोग से कोई संबंध नहीं। उसका
आत्मबोध से संबंध है। शाश्वत जो मेरे भीतर छिपा है, उसको जानने से मेरा शाश्वत से संबंध जड जायेगा। क्षणिक जो मेरी देह है, उसके माध्यम से जितने भी संबंध में जोड़ता हूं, वे भी क्षणिक ही होंगे।
साधु का आधारभूत लक्षण है कि दूसरे में उसे बुरा दिखाई न पड़े। लेकिन क्यों ? यह तभी हो सकता है, जब स्वयं के भीतर से बुरा गिर जाये। क्योंकि हमें वही दिखाई पड़ता है दूसरे में, जो हमारे भीतर होता है-मैगनिफाइ होकर दिखाई पड़ता है; खूब बड़ा होकर दिखाई पड़ता है। हमारे चारों तरफ दर्पण घूम रहे हैं । सारा जगत दर्पण है, जिसमें हम ही लौट-लौट कर गूंजते हैं और दिखाई पड़ते हैं। जिस दिन कोई व्यक्ति भीतर से दुर्गुणों से शून्य हो जाता है, इन दर्पणों में भी दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। __ लेकिन आप उस तरह के लोग हैं कि अगर दर्पण में आपका कुरूप चेहरा दिखाई पड़े, तो आपको खयाल आता है कि दर्पण में जरूर कोई भूल है। मेरा चेहरा और कुरूप कैसे हो सकता है ! तो आप दर्पण तोड़ देने को तैयार हो सकते हैं, चेहरा बदलने को नहीं । हम यही कर रहे हैं। चारों तरफ हर संबंध, जीवन का हर संबंध प्रतिफलन कर रहा है। __जब आप पाते हैं कि आपको एक बुरी पत्नी मिल गयी, तो आपके खयाल में नहीं आता कि यह बुरे पति का परिणाम है; यह होने ही वाला है। आप पत्नी बदल सकते हैं; दर्पण बदल सकते हैं, लेकिन हर पत्नी बुरी सिद्ध होगी। वह तो अच्छा है, जिन मुल्कों में पत्नी बदलने की बहुत सुविधा नहीं, तो यह दुख अनुभव नहीं हो पाता कि हर पत्नी बुरी सिद्ध होती है। यह आशा बनी ही रहती है कि यह एक भूल हो गयी है; बाकी इतनी स्त्रियां थीं, जो अच्छी पत्नी हो सकती थीं। लेकिन जिन मुल्कों में सुविधा हो गयी तलाक की, वहां जीवन बड़ी उदासी से भर गया है। हर बार उसी तरह की पत्नी आदमी खोज लेता है, जैसी उसने पहले खोजी थी। क्योंकि खोजनेवाला तो बदलता नहीं। तो खोजी जानेवाली चीज भी बदलनेवाली नहीं है। __ आप कितना ही कुछ भी करें, दर्पण के बदलने से आप बदलनेवाले नहीं हैं। हर दर्पण आपका ही प्रतिफलन देगा। और आप इतने ज्यादा अंधेरे से भरे हैं कि दर्पण से रोशनी आने का कोई उपाय नहीं है। जब आपको कोई भी दुख चारों तरफ से मिलता है, तो ध्यान रखना-लोग बुरे हैं, इसलिए दुख मिल रहा है-यह धारणा सामान्य आदमी की है। मैं बुरा हूं, इसलिए दुख पा रहा हूं-यह धारणा साधु की है। और यही क्रांति साधारण व्यक्ति को साधु बनाती है। दूसरों को बदल दूं, यह चेष्टा साधारण चेष्टा है। अपने को बदल लूं, यह साधु का संकल्प है। लेकिन अपने को बदलने का खयाल ही तब आयेगा, जब हर परिस्थिति में मैं देख पाऊं अपने को ही; खोज पाऊं अपने को ही।
'जो दूसरों को यह दुराचारी है' ऐसा नहीं कहता, ऐसा अनुभव भी नहीं करता; जो कटु वचन-जिससे सुननेवाला क्षुब्ध हो-नहीं बोलता...!' ___ ध्यान रहे, जब भी आप कटु वचन बोलते हैं, तो आप किसी को क्षुब्ध करना चाहते हैं-चेतन या अचेतन; होशपूर्वक या अनजाने । लेकिन आप किसी को क्षुब्ध करना चाहते हैं। एक बड़े मजे की बात है, आप कटु वचन बोलें और दूसरा क्षुब्ध न हो, तो आप क्षुब्ध हो जायेंगे। आप किसी को गाली दें, और वह मुस्कुराता रहे, गाली लौट आयी। उस आदमी ने स्वीकार नहीं की। वह गाली आपकी ही छाती में तीर बनकर चुभ जायेगी। अगर आप क्षुब्ध करना चाहें, और कोई क्षुब्ध न हो, तो आप बड़ी बेचैनी और बड़ी मुश्किल में पड़ जायेंगे। और अगर कोई क्षुब्ध हो जाये, तो आप कहते हैं कि क्षुब्ध होनेवाले की भूल है, मैंने तो ऐसा कुछ कहा नहीं; और अगर
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