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महावीर-वाणी भाग : 2
वचन तीखा भी था, तो सत्य था। ___ हम सत्य भी बोलते हैं तभी, तो जब हिंसा उससे हो सकती है । सत्य भी हम तभी बोलते हैं, जब उसका उपयोग हम छुरी की तरह कर सकें; किसी को काट सकें, चोट पहुंचा सकें। हमारे सत्य भी असत्यों से बदतर होते हैं। लेकिन साधु की सदा कोशिश यह होगी कि वह जो भी बोल रहा है, जो भी कर रहा है... । वह क्यों कर रहा है; क्यों बोल रहा है ? उसका मूल भीतर क्या है ? किसी को मैं क्षुब्ध क्यों करना चाहता हूं? किसी को क्षुब्ध करने की वृत्ति क्यों है? ___ जब तक आप किसी को क्षुब्ध न कर सकें, तब तक आपको अपनी मालकियत नहीं मालूम पड़ती। जिसको आप क्षुब्ध कर लेते हैं, उसके आप मालिक हो जाते हैं। ___ मनसविद कहते हैं कि अगर हिटलर को बचपन में प्रेम मिला होता, तो शायद हिटलर पैदा नहीं होता । उसे कोई प्रेम नहीं मिला, तो उसने एक ही कला सीखी दूसरे पर मालकियत की—वह थी हिंसा, घृणा, दूसरे को नष्ट करना ।
जब आप किसी को नष्ट करते हैं तो आपको लगता है, आप मालिक हैं।
ध्यान रहे, दो तरह की मालकियत अनुभव की जा सकती है । या तो आप कुछ सृजन करें, कुछ क्रियेट करें... । एक चित्रकार एक पेंटिंग बनाता है। पेंटिंग बनाकर प्रसन्न होता है, क्योंकि उसने कुछ बनाया; और बनाने के माध्यम से वह ईश्वर का हिस्सेदार हो गया। किसी अर्थ में ईश्वर हो गया। ईश्वर ने बनायी होगी यह सारी दुनिया; उसने भी एक छोटी दुनिया बनायी है। एक मूर्तिकार एक मूर्ति बनाता है। एक संगीतज्ञ एक धुन खोजता है; एक लय बिठाता है। एक नर्तक एक नृत्य को जन्म देता है। वे प्रसन्न होते हैं; वे आनंदित होते हैं-उन्होंने कुछ बनाया। और जिसको वे बना लेते हैं, उसके मालिक हो जाते हैं।
वह जो क्रियेटर है, वह जो स्रष्टा है किसी चीज का, वह उसका मालिक है। यह एक उपाय है मालिक होने का । दूसरा उपाय यह है कि किसी चीज को आप तोड़ दें, मिटा दें, नष्ट कर दें-तब भी आप मालिक हो जाते हैं । न हुए ब्रह्मा, हो गये शिव-लेकिन ईश्वर के हिस्सेदार हो गये। कुछ मिटाया। मिटा सकते हैं आप। ___ और ध्यान रहे, बनाना बहुत कठिन है, मिटाना बहुत आसान है । एक जीवन को जन्म देना बहुत कठिन है । एक जीवन को नष्ट करने में क्या लगता है ! हिटलर ने लाखों लोगों को मिटा दिया। जितने लोग मिटते गये, उसे लगता गया, वह कुछ है। ईश्वर होने का अनुभव उसे होने लगा होगा। अगर सारी दुनिया को मिटाने की ताकत उसके हाथ में आ जाती, जिसकी वह कोशिश कर रहा था, तो उसे लगता कि अब मेरे सिवा और कोई परमात्मा नहीं है। मैं मिटा सकता है। - धर्म और अधर्म इसी जगह से भिन्न होते हैं। अधर्म है मिटाकर मालिक बनने की कोशिश, और धर्म है सृजन करके मालिक बनने की कोशिश । दोनों मालकियत हैं। लेकिन सृजन प्रेम है, विध्वंस हिंसा है। आप तलवार से ही मिटाते हैं, ऐसा नहीं है; एक छोटा-सा शब्द भी किसी के प्राणों को मिटा सकता है । आंख का एक इशारा, आपके चलने का ढंग; किसी को तोड़ सकता है, नष्टकर सकता है। __ महावीर कहते हैं, साधु वह है जो वचन भी कठोर नहीं बोलता, इतना भी नहीं कि कोई जरा-सा क्षुब्ध हो जाये । और जब भी कोई क्षुब्ध होता है, तब वह अनुभव करता है कि मैंने कुछ किया है,जिससे क्षोभ पैदा हुआ है। और वह अपने द्वारा पैदा किये क्षोभ को हर तरह से मिटाने की कोशिश करता है। ऐसा व्यक्ति अपने चारों तरफ फूल खिलाने लगता है । विनाश की शक्ति सृजन बननी शुरू हो जाती
बुद्ध के संबंध में कहा जाता है कि वे जहां से गुजरते, वहां वृक्षों में असमय फूल आ जाते । यह तो कहानी है, लेकिन बड़ी सूचक है। बुद्ध जैसा व्यक्ति, जिसकी सारी ऊर्जा विध्वंस से हटकर सृजन बन गयी , उसका प्रतीक है यह । असमय भी वृक्षों में फूल आ जायें,
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