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________________ महावीर वाणी भाग 2 रहा है। भिखारी भी चिंतित है कि चोरी न हो जाये। साधु भी चिंतित है कि उसका कुछ सामान न खो जाये। तो उसकी गृहस्थी छोटी हो गयी, सिकुड़ गयी, लेकिन मिटी नहीं। उसके लालच का फैलाव कम हो गया, लेकिन मिटा नहीं । और ध्यान रहे, लालच का फैलाव जितना कम हो जाये, लालच उतना ही ज्यादा नशा देता है; क्योंकि इंटेंसिटी बढ़ जाती है। यह जरा समझने जैसा है। जैसे कि सूरज की किरणें पड़ रही हैं, आग पैदा नहीं होती; लेकिन आप एक लेन्स से सूरज की किरणों को इकट्ठा कर लें एक कागज पर, सारी किरणें इकट्ठी हो जायेंगी, आग पैदा हो जायेगी। किरणें तो पड़ रही थीं, लेकिन बिखरी हुई थीं; इकट्ठी पड़ती हैं तो कागज जल उठता है, आग पैदा हो जाती है । ध्यान रहे, साधारण गृहस्थ आदमी की वासना की किरणें तो बिखरी हुई हैं। साधु के पास तो ज्यादा सामान नहीं रह जाता, जिस पर वह अपनी वासना को फैला दे; बहुत थोड़ा रह जाता है, इसलिए बहुत इंटेंस, बड़ी तीव्रता से वासना इकट्ठी हो जाती है। और कई बार ऐसा होता है कि फैला हुआ गृहस्थ उतना गृहस्थ नहीं होता, जितना सिकुड़ा हुआ साधु गृहस्थ हो जाता है; जकड़ जाता है। थोड़ी जगह वासना इकट्ठी होकर आग पैदा करने लगती है। इसीलिए मनुष्य का मन अनजाने ही, जैसे सहज वृत्ति से सत्य को जानता है... । अगर आप एक स्त्री को प्रेम करते हैं तो वह बरदाश्त नहीं करेगी कि आप किसी और स्त्री को प्रेम करें। यह सहज है । कोई चेष्टा नहीं है। लेकिन सहज ही दूसरी स्त्री के प्रति आपका जरा-सा भी लगाव उसे कष्ट देगा। अगर आपकी पत्नी किसी दूसरे में जरा ज्यादा उत्सुकता लेती है, तो आपको कष्ट होना शुरू हो जायेगा । कारण है। और कारण यह है कि जितनी वासना फैल जाती है, उसकी तीव्रता कम हो जाती है - तो जो आग पैदा हो सकती है वासना से, वह फिर पैदा नहीं होती। इसलिए प्रेमी डरते हैं कि कहीं वासना ज्यादा लोगों पर न फैल जाये। तो सब तरफ से वासना की किरणें एक ही व्यक्ति पर इकट्ठी हों । इसलिए प्रेमी एक दूसरे को मोनोपलाइज करते हैं; पजेस करते हैं, एक-दूसरे को बिलकुल अपने पर रोक लेना चाहते हैंभी वासना कहीं न जाये ताकि वासना की तीव्रता और चोट आग पैदा कर सके। -जरा-सी इसलिए इतना भय प्रेमियों को लगा रहता है; और इतनी ईर्ष्या, और इतनी जलन, और इतना उपद्रव पकड़े रहता है। इस सबके पीछे कोई बड़ी नैतिकता नहीं है। इस सबके पीछे कोई धर्म नहीं है और कोई समाज नहीं है। इस सबके पीछे मनुष्य का सहज अनुभव है कि वासना अगर बिखर जाये तो कुनकुनी हो जाती है; उसमें आग नहीं रह जाती। अगर वासना बहुत लोगों पर फैल जाये तो फिर उससे गहरे संबंध निर्मित नहीं हो सकते। फिर सतह पर ही मिलना हो पाता है। साधु अपनी वासना को सिकोड़ लेता है सब तरफ से घर छोड़ देता; पत्नी छोड़ देता; धन छोड़ देता; लेकिन तब उसकी वासना, जो उसके आस-पास रह जाता है, उस पर केंद्रित होने लगती है। यह बड़े मजे की बात है कि बाप नहीं मिलेंगे ऐसे, जो अपने बेटे के प्रति इतने आसक्त हैं, जितने गुरु मिल जायेंगे, जो अपने शिष्य के प्रति इतने आसक्त हैं। गुरु जितना बेचैन रहता है कि कहीं शिष्य और कहीं न चला जाये, किसी और को गुरु न बना ले, कहीं और न भटक जाये - उतना बाप भी चिंतित नहीं रहता; उतना बाप भी परेशान नहीं रहता । और निश्चित ही अगर गुरु को संन्यस्त होने का पूरा अनुभव नहीं हुआ है अभी, तो ही यह हो सकता है। गुरु नहीं है ठीक अर्थों में, तो ही यह हो सकता है। बुरी तरह शिष्य को जकड़ लेता है, सब तरफ से बांध लेता है, पजेसिव हो जाता है। यह न केवल व्यक्तियों के संबंध में होगा, चीजों के संबंध में भी हो जायेगा। जो थोड़ी-सी चीजें साधु के पास रह जायेंगी, उन पर Jain Education International 450 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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