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भिक्षु कौन? वह सारा संसार आरोपित करेगा। वही उसका संसार है। आप लाख रुपये की चीज को भी इतना संभालकर नहीं रखेंगे, जितना साधु दो कौड़ी की चीज को संभालकर रखेगा।
महावीर कहते हैं, ऐसी मूर्छा अगर हो तो भिक्षु अभी भिक्षु नहीं है। 'जो लालची नहीं है, गृद्ध नहीं है, लोभी नहीं है...।'
लोभ बड़ी सूक्ष्म वृत्ति है। और इसका संबंध धन से, मकान से, जमीन-जायदाद से नहीं है। इसका संबंध भीतर की एक गहरी आकांक्षा से है। और वह आकांक्षा है-और ज्यादा. और ज्यादा-किसी भी संबंध में। ___ अगर धन लाख रुपया आपके पास है, तो आपका लोभ कहेगा-और ज्यादा। अगर आपको उम्र सत्तर वर्ष की मिली है, तो लोभ की वासना कहेगी- और ज्यादा। अगर आपको ध्यान में थोड़ी-सी शांति मिल रही है, तो लोभ की आकांक्षा कहेगी और ज्यादा। अगर आपको मोक्ष के थोड़े-से दर्शन होने लगे हैं, तो लोभ की आकांक्षा कहेगी-और ज्यादा। ___ लोभ की आकांक्षा का सूत्र है-और ज्यादा; जितना है, उतना काफी नहीं। तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आप घर छोड़कर चले गये, दकान छोड़कर चले गये। 'और ज्यादा' में कोई फर्क नहीं पड़ता।
मेरे पास लोग आते हैं; ध्यान कर रहे हैं। उन्हें शांति मिलती है। जब उन्हें शुरू-शुरू में शांति मिलती है, वे बड़े प्रसन्न होते हैं। फिर थोड़े दिन बाद आकर वे कहने लगते हैं कि अब ठीक है, यह शांति तो ठीक है-अब और आगे क्या? और अब कुछ आगे बढ़ायें। आनंद कब मिलेगा? उनको पता नहीं कि जब और ज्यादा' का खयाल छूट जायेगा, तभी आनंद मिलेगा। वही अड़चन है। क्योंकि और ज्यादा' का खयाल ही दुख देता है। वही बाधा है। और आप और ज्यादा' को हर जगह लगा लेते हैं। कुछ भी हो, वह लग जाता है। कहीं भी वह वृत्ति जुड़ जाती है और बेचैनी शुरू हो जाती है।
आपको परमात्मा भी मिल जाये, तत्क्षण जो बात आपके मन में उठेगी, वह यह होगी कि अच्छा, ठीक है-यह तो ठीक, अब और ज्यादा...। आप सोचें, खुद अपने मन के बाबत सोचें कि मिल गया परमात्मा-तृप्ति नहीं होगी! __ मन कुछ ऐसा है कि अतृप्त रहना उसका स्वभाव है। लोभ मन की आधारभूत वृत्ति है। जहां लोभ मिट जाता है, वहां मन मिट जाता है। जहां लोभ नहीं वहां मन के निर्मित होने का कोई उपाय नहीं है। मन कहता है, जो है यह काफी नहीं है, और ज्यादा हो सकता
और वह जो नहीं हो रहा है, उससे पीड़ा आती है; जो हो रहा है, उसका सुख खो जाता है। इसे थोड़ा समझें। __ आप अपना दुख इसी वृत्ति के कारण पैदा कर रहे हैं। इसको महावीर कहते हैं, गृद्ध-वृत्ति-गीध के जैसी वृत्ति। अगृद्ध होगा भिक्षु। जो भी है, वह कहेगा, इतना ज्यादा है कि मेरी क्षमता नहीं थी, वह मुझे मिला। वह हमेशा अनुगृहीत भाव से भरा होगा। एक प्रैटिट्यूड होगा उसमें।
आप जब तक लोभ से भरे हैं, आपमें अनुग्रह नहीं हो सकता। आपको कुछ भी मिल जाये, तो भी शिकायत होगी। आपकी जिंदगी एक लम्बी शिकायत है। उसमें कभी भी अहोभाव नहीं हो सकता। क्योंकि आप सदा जानते हैं, और ज्यादा मिल सकता था; और ज्यादा मिल सकता था, जो नहीं मिला।
भिक्षु का अर्थ है; संन्यस्त का अर्थ है- ऐसा व्यक्ति, जिसे जो भी मिल जाये, तो वह हमेशा अनुभव करता है कि जो मझे नहीं मिल सकता था, वह मिल गया; जो मेरी पात्रता नहीं थी, वह मुझे मिल गया; जिसको पाने का मैं अधिकारी नहीं था, वह मुझ पर बरस गया। वह हमेशा अनुगृहीत है। ग्रैटिट्यूड उसका स्वभाव हो जायेगा। जो भी मिल जाये, वह उसे इतनी परम तृप्ति देगा कि आनंद के द्वारा
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