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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 सकते हैं, ऐसी प्रतीति का नाम श्रद्धा है। __ श्रद्धा का अर्थ अंधापन नहीं है। और श्रद्धा का अर्थ हर किसी को मान लेना नहीं है। श्रद्धा का अर्थ है ऐसे ग्राहक, रिसेटिव, संवेदनशील चित्त की अवस्था, जब हमसे पार का कोई व्यक्तित्व निकट हो तो हम उसके प्रति बंद न हों, खुले हों, हम तैयार हों उसके साथ थोड़ा दो कदम चलने को–क्योंकि वह किन्हीं रास्तों पर चला है, जो हमसे अपरिचित हैं, उसने कुछ जाना है, जो हमने नहीं जाना; उसने कुछ देखा है, जिसके लिए हम अभी अंधे हैं; उसको कुछ स्वाद मिला है, जिसका हमें कोई भी पता नहीं है, उसके साथ दो कदम चलने का नाम श्रद्धा है। और प्राथमिक यात्रा उसके साथ ही शुरू होगी। जीवन जटिल है; एक बड़ी पहेली है। और उसमें सबसे बड़ी जटिलता है और यह है कि हम जहां हैं, वहां से हिलने में हमें तकलीफ होती है। चाहे हम दुख में ही क्यों न हों, दुख को छोड़ने में भी तकलीफ होती है। क्योंकि दुख परिचित है, अपना है, और छोड़कर जहां हम जायेंगे, वह होगा अपरिचित, अनजान; वहां भय लगता है। अनजान रास्तों पर जाने में भय लगता है, इसलिए हम अनजान रास्तों पर नहीं जाते। और अगर हम जाने-माने रास्तों पर ही भटकते रहे तो हम एक वर्तुल में घूम रहे हैं; जो जाना है, उसे ही फिर से...उसे फिर-फिर जान लेंगे, लेकिन जीवन में कोई नया सूरज, इस जीवन में कोई नया जन्म संभव नहीं होगा। हम पिटी हुई लकीर पर घूमते रहेंगे। श्रद्धा का अर्थ है, किसी के साथ अनजान में उतरने का साहस । यह किसी के साथ ही होगा; क्योंकि उस दूसरे को देखकर भरोसा आ जायेगा। और उस दूसरे के व्यक्तित्व में ऐसे लक्षण हैं, जो भरोसा दिला सकते हैं। अगर महावीर कहते हैं कि एक ऐसा आनंद है, जिसका कोई अंत नहीं होता; एक ऐसे आनंद की अवस्था है, जहां दुख की एक तरंग नहीं उठती, तो हम महावीर को देखकर भी अनुभव कर सकते हैं। महावीर का पूरा जीवन सामने है। वहां दुख की एक भी तरंग नहीं है; दुख के सब अवसर हैं तो भी महावीर को दुखी करना असंभव है। सब तरह की कोशिश की गयी है कि उन्हें दखी किया जाए, लेकिन सभी कोशिश असफल हो गयी। जिस व्यक्ति को दुखी नहीं किया जा सकता, एक बात पक्की है कि उसे कुछ मिल गया है, जो हमारे सब दुखों के पार चला जाता है । वह किसी नये केन्द्र पर प्रतिष्ठित हो गया है। कोई एक नयी तरह की सेंट्रिंग उसके भीतर हो गयी है, जिसे हम हिला नहीं पाते । हम तो हिल जाते हैं हवा के थोड़े-से झोंके से, झोंके का खयाल भी आ जाए, तो हिल जाते हैं। महावीर अकंप हैं। कैसा भी तूफान हो उनके चारों तरफ, कितनी ही बड़ी आंधी उठे, महावीर के भीतर कोई आंधी प्रवेश नहीं कर पाती । निश्चित ही, कोई बहुत गहन केंद्र उन्हें उपलब्ध हो गया है। पर हमें वह केंद्र दिखाई नहीं पड़ता; सिर्फ महावीर दिखाई पड़ते हैं। और महावीर को देखकर उस केंद्र का अनुमान हो सकता है। वह अनुमान हमारी श्रद्धा बनेगा। लेकिन इस श्रद्धा के लिए महावीर के प्रति खुले होना जरूरी है। अगर आप आलोचक की तरह महावीर के पास जाते हैं, तो आप पहले से ही धारणाएं बनाकर जा रहे हैं। आपकी धारणाएं आपके जाने हुए जगत से संबंधित हैं, महावीर एक नये जगत के पथिक हैं; ऐसा समझें कि किसी और लोक के व्यक्ति हैं। आपकी भाषा, आपका अनुभव उन पर कुछ भी लागू नहीं होता । तो जो भी आप अपनी धारणाओं को लेकर उनके संबंध में सोचेंगे, वह गलत होगा। उस गलती से महावीर को कोई हानि होनेवाली नहीं है । स्मरण रहे, उस गलती से आप बंद हो जायेंगे, और श्रद्धा का जो अंकुरण हो सकता था, वह नहीं हो पायेगा। श्रद्धा इस जगत में सबसे अनूठी बात है, प्रेम से भी अनूठी; क्योंकि प्रेम तो वासना के प्रवाह में जग जाता है; श्रद्धा निर्वासना के प्रवाह में जगती है। जैसे-जैसे व्यक्ति की वासना सबल होती है, प्रगाढ़ होती है, प्रेम जग जाता है। प्रेम एक प्राकृतिक घटना है, जिसमें शरीर के कोष्ठ भाग लेते हैं । वह एक बायलाजिकल, एक जैविक घटना है। आपको कुछ करना नहीं पड़ता । बच्चा जवान होता है, और उसके चारों तरफ प्रेम पकने लगता है। वह प्रेम में गिरेगा। 404 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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