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भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है
श्रद्धा एक अर्थ में प्रेम-जैसी है, और एक अर्थ में प्रेम से बिलकुल उलटी है। श्रद्धा अलौकिक घटना है, क्योंकि शरीर का कोई भी कण उससे सहयोगी नहीं होता। और अगर वैज्ञानिक जांच करे, तो आपके प्रेम का तो फारमूला निकाल लेगा कि आपके शरीर में किन हारमोन्स के कारण प्रेम पैदा होता है। लेकिन श्रद्धा का कोई फारमूला वैज्ञानिक नहीं निकाल सकता। कितना ही श्रद्धालु की जांच की जाए, उसके भीतर ऐसा कोई भौतिक तत्व नहीं मिलेगा, जिसके कारण श्रद्धा समझी जा सके।
श्रद्धा बेबझ है। लेकिन श्रद्धा घटी है। और श्रद्धा ऐसी घटी है कि लोगों ने अपने परे जीवन को उस पर दांव पर लगा दिया है। जिनके जीवन में श्रद्धा घटी है उन्होंने उसे जीवन से भी ज्यादा मूल्यवान पाया है; अन्यथा कौन जीवन को नष्ट करेगा? कौन पूरे जीवन को दांव पर लगा देगा? जीवन को दांव पर लगाना बताता है कि जीवन के भीतर कछ ऐसा भी घट सकता है, जो जीवन के पार जाता है; जीवन की सीमा में जिसकी कोई परिभाषा नहीं है।
श्रद्धा मनुष्य के जीवन में अलौकिक फूल है; इस पृथ्वी पर किसी और लोक का अवतरण है। और जब आप का हृदय आंदोलित होता है श्रद्धा से, तो आप पृथ्वी के हिस्से नहीं रह जाते; ग्रैविटेशन-जमीन की कशिश से आप मुक्त हो जाते हैं। लेकिन उस घटना
? एक बात समझ लेनी जरूरी है कि उस घटना के लिए पाजिटिवली, विधायक रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता; नकारात्मक रूप से कुछ किया जा सकता है। ___ आप प्रेम करने के लिए क्या कर सकते हैं? क्या आप चेष्टा करके प्रेम कर सकते हैं? अगर आपसे कहा जाए कि इस व्यक्ति को प्रेम करो, और आपके भीतर प्रेम न घट रहा हो, तो क्या आप प्रेम करके बता सकते हैं? क्या प्रेम का अनुभव पैदा हो सकता है चेष्टा से?
प्रेम का अनुभव भी चेष्टा से पैदा नहीं होता। आप सिर्फ इतना ही कर सकते हैं कि बाधा न डालें। व्यक्ति को निकट आने दें, खुद को निकट पहुंचने दें, आंतरिकता बढ़ने दें। आप कुछ और कर नहीं सकते । घट जाए, घट जाए; न घटे, न घटे-आपके हाथ की बात नहीं है। __ श्रद्धा और भी कठिन है। क्योंकि प्रेम के लिए तो शरीर में एक धक्का है, एक ज्वार है, एक चोट है; शरीर भी मांग कर रहा है। श्रद्धा तो शरीर की मांग नहीं है; श्रद्धा आत्मा की मांग है। और जैसे प्रेम शरीर की घटना है, ऐसे श्रद्धा आत्मा की घटना है। और जब हम प्रेम तक को पैदा नहीं कर पाते, तो श्रद्धा को पैदा करना तो बहुत मुश्किल है।
तो आप क्या करें? __ आप अपने को छोड़ें। एक लेट-गो, एक विश्राम चाहिए। जहां श्रद्धा पैदा हो सकती हो, उस व्यक्ति के पास आपका एक विश्राम से भरा हुआ चित्त चाहिए। आपका द्वार खुला रहे । आप सूरज को घसीटकर मकान के भीतर नहीं ला सकते; लेकिन सूरज बाहर हो,
और दरवाजा बंद हो, तो सूरज दरवाजा तोड़कर भीतर आयेगा नहीं । आप दरवाजा खुला छोड़ सकते हैं । सूरज बाहर होगा, उसकी किरणें भीतर आ जायेंगी। किरणों को बांधकर लाने का कोई उपाय नहीं है, लेकिन किरणों को आप आने से न रोकें, इतना काफी है। इसलिए मैं कहता हूं, श्रद्धा का जन्म नकारात्मक है। __ आप महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट के करीब रह चुके हैं। इस जमीन पर कोई भी नया नहीं है। न मालूम कितने तीर्थंकर और अवतार आपके पास से गुजर चुके हैं। लेकिन आपने श्रद्धा का मौका नहीं दिया। आपके ऊपर, जैसे उलटे घड़े पर से पानी बह जाए, ऐसे ही श्रद्धा की सारी संभावनाएं बह गयी हैं । निश्चित ही, अपने को समझा लेते हैं। जब महावीर आपके पास होते हैं, तो आप-आप अपने को समझा लेते हैं कि आदमी ही ऐसा नहीं है कि श्रद्धा पैदा हो।
ध्यान रहे, महावीर से कोई संबंध नहीं है श्रद्धा का; श्रद्धा का संबंध आपसे है। वह आपकी निजी घटना है। हो जाये, तो महावीर
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