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________________ वर्णभेद जन्म से नहीं, चर्या से तपस्वी वह है जो न सुख की आकांक्षा करता है, न दुख की; जो आ जाता है उसके जीवन में उससे बिना चिंता के अपने को गुजारता है। जो भी हो, वह हर हालत में अपने को अनुद्विग्न रखता है। न तो सुख से रस बांधता है, न दुख से। दुख आयेंगे, क्योंकि हमारे बहुत-से जन्मों की शृंखला है, हमारे कर्मों का गहन संस्कार है। और हम आज एकदम नये नहीं हो सकते हैं। हमारा कल हमारा पीछा कर रहा है। कल हमने किसी को गाली दी थी, वह आज गाली देने आयेगा। दुख आयेगा। तो, तपस्वी चाहता नहीं कि कोई आकर उसे गाली दे, ऐसी उसकी कामना नहीं है, लेकिन कोई गाली दे, तो वह साक्षीभाव से सहेगा। इसको महावीर ने 'परिशय' कहा है, दुख को साक्षीभाव से सहने की कला; कोई प्रतिक्रिया न करते हुए जो भी हो उसे चुपचाप सह लेना, उसके प्रति कोई भी धारणा न बनाना—यह कि बुरा है, नहीं होना था, ऐसा नहीं होना था, ऐसा क्यों हुआ, परमात्मा ने ऐसा मुझे क्यों दिखाया, कौन से कर्मों का पाप है—कुछ भी प्रतिक्रिया न करना, सिर्फ ऐसा भाव रखना कि एक लेन-देन था पुराना, वह निपट गया; संबंध समाप्त हुआ, एक कड़ी जुड़ी थी, वह टूट गयी। दुख आये तो उसे सह लेना तपश्चर्या है। दुख की खोज रोग है। लेकिन आप देखें, जब भी आप साधना में उत्सुक होते हैं तो आप दुख की तलाश करते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, अगर मैं उन्हें सीधा-सीधा उपाय बताता हूं तो वे कहते हैं कि यह इतना सीधा है कि इससे क्या होगा? कुछ उपद्रव उनको न बताया जाए तो जमता नहीं । उपद्रव की इच्छा है। अगर मैं उनको कहूं कि पहले पूरी रात सर्दी में खड़े रहो, फिर दिनभर उपवास करो, फिर कुछ उठक-बैठक, कवायद, कुछ आसन करो, फिर ध्यान पर बैठना, तो जंचेगा। तब वे कहेंगे कि हां, इससे कुछ हो सकता है, क्योंकि कुछ करने जैसा दिखता है। खुद को कष्ट देने में विजय मालूम पड़ती है कि मैं मालिक हो रहा हूं। दुनिया में धर्मों के नाम पर स्वयं को जो इतना कष्ट दिया जाता है, जो इतनी सेल्फ-टार्चरिंग चलती है, वह इसलिए चलती है कि लोग अपने को कष्ट देना चाहते हैं । बहाने कोई भी खोज लेते हैं, फिर अपने को कष्ट देते हैं । यह जो कष्ट देना है, यह स्वस्थ मन का सबूत नहीं है । और महावीर कहते हैं, तपस्वी का इससे कोई लेना-देना नहीं है। 'समता से मनुष्य श्रमण होता है।' भीतर के समत्व से, भीतर के संतुलन से, भीतर के सयुंक्त से, व्यक्ति श्रमण होता है। 'ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है।' और जिसका आचरण ब्रह्म-जैसा होने लगता है...। ब्रह्मचर्य का मतलब केवल वीर्य-रक्षण नहीं है। वह क्षुद्रतम अर्थ है। ब्रह्मचर्य का ठीक-ठीक अर्थ है : ब्रह्म जैसी चर्या जैसा आचरण । अगर ईश्वर ही पृथ्वी पर उतर आये, तो वह कैसे चलेगा, वह कैसे उठेगा-बैठेगा, वह कैसे बोलेगा, कैसे व्यवहार करेगा? 'उस' जैसा आचरण जिसका हो जाए, वह ब्राह्मण है। __ और भीतर जो इतना संतुलित हो जाए कि बाहर की कोई भी चीज उसे हिला न सके; डिगा न सके कोई तूफान जिसकी चेतना की लौ को जरा भी कंपित न कर सके जो भीतर अंकप हो जाए, वह श्रमण है; और जो ब्रह्म जैसे आचरण को उपलब्ध हो जाए वह ब्राह्मण 'ज्ञान से मुनि होता है; और तप से तपस्वी बन जाता है।' ___ ज्ञान, वह जो हमें शास्त्र से मिल जाए, वह नहीं है । वह तो किसी को भी मिल सकता है। उससे आदमी पंडित होता है; शास्त्रीय होता है; शब्द-जाल फैल जाता है और वैसे पंडित दूसरों को भी पंडित बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं। वह खुद भटके हैं और दूसरों को 395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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