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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 मुल्ला नसरुद्दीन कपड़ा बेचता था। एक दिन आधी रात में उठा और एकदम से उसने अपनी चादर फाड़ दी। उसकी पत्नी ने पूछा, 'नसरुद्दीन, यह क्या कर रहे हो?' उसने कहा, 'तू कम से कम दुकान में दखल न दे, ग्राहक कपड़ा खरीदने आया है।' वह सपने में कपड़ा फाड़कर ग्राहक को दे रहा है। सपने में भी ग्राहक! सपने में भी दकान! सपने में भी वही चलेगा न, जो दिन में चला है! आप कहां भागकर जायेंगे अपने से? तो एकांत निर्जन में आप जा सकते हैं, लेकिन आप अकेले नहीं हो सकते। अकेले होने की कला दूसरी है । जो आदमी अकेले होने की कला जान लेता है, वह भीड़ में भी अकेला है। उसके लिए भीड़ में भी एकांत है। महावीर को आप बाजार में ला ही नहीं सकते । इसका मतलब यह नहीं है कि उनको आप बाजार में नहीं निकाल सकते । बिलकुल निकाल सकते हैं। लेकिन महावीर को बाजार में नहीं लाया जा सकता । बाजार में से भी वह ऐसे ही गुजर जायेंगे, जैसे कि एकांत से गुजर रहे हों । क्योंकि उनके भीतर कोई भीड़ नहीं है। ___ भीड़ में अकेले होने की कला । और हम तो एक ही कला जानते हैं, अकेले में भी भीड़ में होने की कला । अकेले भी बैठे हैं, तो भी भीतर कुछ चलता रहता है। निर्जन वन में रहने से कोई मुनि नहीं होता, हालांकि कोई मुनि हो जाये तो निर्जन उसे उपलब्ध हो जाता है। 'और न कुशा के वस्त्र पहन लेने मात्र से कोई तपस्वी होता है।' अपने को कष्ट देने से कोई तपस्वी नहीं हो जाता, यद्यपि कोई तपस्वी हो तो कष्टों को झेलने की क्षमता आ जाती है। इस फर्क को समझ लें। ये दोनों बातें बडी बनियादी और भिन्न हैं। एक आदमी अपने को कष्ट दे रहा है; कांटे बिछाकर लेटा हुआ है; आग जला लिया है और उसके पास बैठकर तप रहा है; धुनी लगा ली है, पसीना-पसीना हो रहा है; सर्दी है, बर्फ पड़ रही है और वह बाहर खड़ा कंप रहा है; यह आदमी आयोजन करके, इंतजाम करके अपने को कष्ट दे रहा है। इस आदमी के चित्त में कहीं न कहीं रोग है । यह आदमी खुद को कष्ट देने में रस ले रहा है। यह अपने को सताने में प्रसन्न है। यह आदमी बीमार है। और इस आदमी में और आप में फर्क नहीं है। आप सख का आयोजन कर रहे हैं. यह दख का आयोजन कर रहा है। यह आपसे उल्टा चला गया आदमी है; पर यह है आप ही जैसा । इंतजाम करना यह भी नहीं छोड़ रहा है। आप चाहते थे सुख मिले, यह चाहता है दुख मिले। यह भी हो सकता है कि सुख पाने की इसने बहुत कोशिश की और नहीं पा सका, तो अब ये अंगूर खट्टे हैं, ऐसा मानकर दुख पाने की कोशिश कर रहा है। इसका अहंकार हार गया; सुख न जुटा पाया। अब इसका अहंकार कम से कम इतना तो जीत ही सकता है कि दुख जुटा सकता है। यह आदमी अहंकार से जी रहा है और रुग्ण है। बहुत लोग हैं जो अपने को कष्ट देने में रस पाते हैं; और वे अपने आस-पास इस तरह के लोग इकट्ठे कर लेते हैं जो उन्हें कष्ट दें। और फिर रोते हैं और चिल्लाते हैं कि यह आदमी मुझे कष्ट दे रहा है। लेकिन आपको पता नहीं है कि आप ने ही उस आदमी को अपने पास इकट्ठा कर लिया है; और आप चाहते हैं कि वह आपको कष्ट दे। और अगर वह चला जाए, तो आपको खालीपन लगेगा और जल्दी ही आप किसी दूसरे आदमी से जगह भर लेंगे। कोई चाहिए जो आपको कष्ट दे। ___ महावीर कहते हैं, अपने को कष्ट देने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता, यद्यपि कोई तपस्वी हो जाये तो कष्ट को झेलने की क्षमता आ जाती है। वह बिलकुल दूसरी बात है। कांटे बिछाकर लेटना एक बात है और जीवन में कांटे आ जायें तो उनके बीच से साक्षीभाव से गुजर जाना बिलकुल दूसरी बात है। जीवन में कांटे आयेंगे, दुख आयेंगे। 394 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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