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वर्णभेद जन्म से नहीं, चर्या से
परमात्मा के चरणों में न छोड़ दे, तब तक ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती। ब्रह्म उपलब्ध होगा, जब अहंकार समर्पित हो जायेगा।
तो समर्पण, श्रद्धा ब्राह्मण संस्कृति का सूत्र है। श्रमण संस्कृति बिलकुल भिन्न है। श्रमण शब्द बना है श्रम से। श्रमण संस्कृति का आग्रह है कि समर्पण से परमात्मा नहीं मिलेगा; श्रम से मिलेगा-प्रयास से, साधना से। सिर्फ 'असहाय हूं और पतितपावन, मुझे बचाओ' इन प्रार्थनाओं से नहीं मिलेगा। जीवन को बदलना होगा। मेहनत करनी होगी। एक-एक इंच जीवन को रूपांतरित करना होगा। कोई प्रार्थना सफल नहीं हो सकती, साधना सफल होगी। ___ अहंकार मिटाना है। लेकिन श्रमण धारा कहती है कि अहंकार समर्पण करने से नहीं मिट सकता । क्योंकि पहली तो बात यह है कि जो है, उसी का समर्पण किया जा सकता है; जो है ही नहीं, उसका समर्पण कैसे होगा? श्रमण धारा कहती है कि अहंकार नहीं है', इस सत्य को जानने की साधना करनी पड़ेगी। समर्पण से क्या होगा? छोड़ेंगे कहां जो है ही नहीं, होता कुछ, तो छोड़ देते। __ और फिर श्रमण संस्कृति कहती है कि अगर दूसरे के चरणों में छोड़ेंगे तो अहंकार यहां से हटा, लेकिन वहां मौजूद होगा जहां छोड़ेंगे।
और इसलिए भक्त का अहंकार अपने भीतर से हटकर भगवान के साथ जुड़ जाता है । भक्त को आप गाली दें, वह नाराज नहीं होगा; उसके भगवान को गाली दें, वह लड़ने को तैयार हो जायेगा। ___ तो अहंकार शिफ्ट हुआ। कल तक अपने साथ था कि मैं महान हूं । अब मैं महान हूं, यह छोड़ दिया, लेकिन मेरा भगवान, मेरा कृष्ण, मेरा राम, मेरा जीसस, मेरा महावीर महान है। अहंकार दूसरी तरफ हट गया, लेकिन सूक्ष्म रूप से अब भी आपका ही अहंकार है; क्योंकि न वहां राम है, न वहां कृष्ण है, न महावीर है उसको झेलने को। आप अपने ही हाथ में संभाले हुए हैं। भगवान भी आपका, अहंकार भी आपका । वे दोनों आपके भीतर ही छिपे हैं।
श्रमण संस्कृति है-अहंकार मिटाना है, समर्पण करने का कोई उपाय नहीं है। और मिटाने का अर्थ है कि इतना श्रम करना है कि स्वयं दिखाई पड़ जाए कि अहंकार है ही नहीं। वह श्रम से ही तिरोहित हो जाए। जैसे सुबह की ओस की बूंद सूरज के उगने पर तिरोहित हो जाती है, ऐसे ही जीवन की धारा जब संगृहित होती है, इन्टिग्रेट होती है, समग्र होती है, तो अहंकार का कुहासा समर्पित नहीं होता है, विसर्जित हो जाता है। श्रमण संस्कृति ‘स्वयं' पर भरोसा रखती है; ब्राह्मण संस्कृति ‘ब्रह्म' पर भरोसा रखती है। श्रमण संस्कृति 'व्यक्तिवादी' है; ब्राह्मण संस्कृति 'अद्वैतवादी' है। ब्राह्मण संस्कृति में एक ब्रह्म है, और श्रमण संस्कृति में उतने ही ब्रह्म हैं जितनी चेतनाएं हैं। और हर व्यक्ति ब्रह्म होने का अधिकारी है। ये दो धाराएं हैं।
महावीर कहते हैं, 'सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता।' जैन साधु हो जाते हैं लोग । उनका सिर मुंडा दिया, वस्त्र बदल दिये, हाथ में उपकरण दे दिये साधु के; साधु हो गये! कल तक यह आदमी साधु नहीं था; एक क्षण वस्त्र बदल लेने से, सिर मुंडा लेने से एक क्षण में साधु हो गया! कल तक इसके चरण कोई छूता नहीं, शायद यह चरण छूता तो लोग अपने चरण को हटा लेते; अब लोग इसके चरणों पर सिर रखते हैं! इसलिए महावीर कहते हैं, 'सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं हो जाता।'
बाह्य आचरण परा भी कर लिया जाए, तो भी भीतर के श्रमण का जन्म नहीं होता। हां. भीतर के श्रमण का जन्म हो, तो बाहर का आचरण भी पीछे आ सकता है, लेकिन बड़े फर्क हैं। बुनियादी फर्क यह है कि अगर कोई भीतर से श्रमण की स्थिति को उपलब्ध हो जाए, तो बाहर का आचरण बदलेगा जरूर, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति का अलग बदलेगा। इसे जरा समझ लें, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का ढंग भिन्न है, बेजोड़ है। तो महावीर नग्न खड़े हो जायेंगे । बुद्ध भी श्रमण को उपलब्ध हुए, लेकिन नग्न खड़े नहीं हुए । महावीर नग्न खड़े हुए। यह उनका निजी ढंग है। जो घटना घटी है, उस घटना को अभिव्यक्त करने का उनका निजी ढंग है । बुद्ध को यह निजी ढंग नहीं जमा; यह खयाल में भी नहीं आया। जब कोई व्यक्ति भीतर की क्रांति को उपलब्ध होता है तो बाहर को व्यवस्था नहीं देता; बाहर
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