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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 यह सभी के साथ होगा, सभी परंपराओं में होगा। महावीर फूंक-फूंककर कदम रखते हैं, कोई हिंसा न हो जाए उनके जीवन में; यह उनको चारों तरफ से घेरे हवा है कि कोई हिंसा न हो जाए; किसी को दुख, किसी को पीड़ा, किसी को कष्ट न हो जाये लेकिन, इसका कारण आंतरिक है । महावीर ने जिस दिन जाना कि 'मैं कौन हूं,' उसी दिन उन्हें ज्ञात हुआ कि सभी के भीतर ऐसा ही चैतन्य विराजमान है, और किसी को भी चोट पहुंचाना अतंतः अपने को ही चोट पहुंचाना है।। __ तो महावीर की अहिंसा उनके ज्ञान की छाया है। फिर उनके पीछे जैनों का समूह है, वह भी अहिंसक होने की कोशिश करता है। उसकी अहिंसा ज्ञान की छाया नहीं है। वह उलटी कोशिश में लगा है। वह सोचता है, जब मैं अहिंसक हो जाऊंगा तो मझे ज्ञान उपलब्ध होगा। महावीर का आचरण आता है अंतरात्मा की क्रांति से, जैन का आचरण आता है, आचरण से, और सोचता है कि पीछे अंतरात्मा की क्रांति होगी। __ हम करीब-करीब बिलकुल पागलपन का काम कर रहे हैं, जो असंभव है। ईंधन लगाते हैं हम भट्टी में, आग जलती है। आग पीछे आती है, ईंधन पहले लगाना पड़ता है। हम आग को पहले रखकर फिर पीछे ईंधन को लाने की कोशिश में लगे हैं। वह होगा नहीं, लेकिन होता हआ दिखता है। धोखा हो जाता है। आदमी आचरण को चिपका लेता है। तब खुद को तो धोखा नहीं होता, खद तो वह जैसा था वैसा ही होता है. लेकिन दसरों को धोखा हो जाता है। पजा. सम्मान. सत्कार मिल जाता है। __बाहर इंगित बड़ी दिक्कतें खड़ी कर देते हैं। दुनियाभर के धार्मिक लोगों के अगर वस्त्र अलग कर लिये जाएं धार्मिकता के, तो भीतर अधार्मिक आदमी बैठा हुआ है। लेकिन इशारे में सब छिप गया है और इशारे का अर्थ हम लगा रहे हैं बाहर से। मैंने सुना है, मध्य युग में ऐसा हुआ कि रोम के पोप के पास कुछ लोगों ने, ईसाइयों ने अत्यंत गहरा निवेदन किया, खुशामद की, यहूदियों की बड़ी निंदा की और कहा रोम में, जो कि ईसाइयों का गढ़ है, वहां तो एक भी यहूदी का रहना ठीक नहीं है । रोम से यहूदी निकाल बाहर कर दिये जायें। पोप, आदमी भला था; लेकिन भले आदमी भी पद पर होकर बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं । पद किसी को भी बुरा कर सकता है। और, अगर पद पर रहने की थोड़ी सी भी आकांक्षा हो, तो फिर बुरे के साथ समझौता जरूरी हो जाता है। __आदमी भला था, लेकिन पद पर रहने की आकांक्षा । वह उसे लगा कि यह बात तो ज्यादती की है, लेकिन अगर ईसाई धनपति सब नाराज हो जायें तो कठिनाई होगी। तो उसने कहा, अच्छा! पर उसने कहा एक तरकीब – हम यहूदियों को अलग कर देंगे, लेकिन पहले एक अवसर देना जरूरी हैं! तो उसने यह अवसर दिया कि यहदियों में जो भी उनका प्रधान हो. जो भी उनका नेतत्व करे. वह आकर मुझ से विवाद करे। पूरा रोम इकट्ठा होगा। और अगर विवाद में वह मुझसे जीत जाए तो यहूदी रह सकते हैं रोम में, अगर वह हार जाए तो यहदियों को रोम छोड़ना पडेगा। कम से कम इतना न्याययुक्त तो मालूम पड़ेगा कि हार गये। इसलिए रोम छोड़ना पड़ा। __ यहूदी बड़े बेचैन हुए। उनके नेता, उनके गुरु, उनके पुरोहित इकट्ठे हुए सिनागाग में, और उन्होंने कहा कि हम तो बड़ी मुश्किल में पड़ गये। और सिनागाग का जो प्रधान पुरोहित था, उसने कहा कि इस विवाद में तो हार निश्चित है, क्योंकि निर्णायक भी पोप है । विवाद भी वही करेगा एक तरफ से, और निर्णायक भी वही है कि कौन जीता कौन हारा! हमारे जीतने का कोई उपाय नहीं है । यह चाल है। __ और प्रधान पुरोहित ने कहा कि मैं विवाद में जाने को राजी नहीं; क्योंकि इसका कोई अर्थ ही नहीं है। और अगर मैं हार गया, जो कि निश्चित है, तो मेरे मन में सदा के लिए एक पाप का भाव रह जाएगा कि मेरे हार जाने के कारण सारे यहूदियों को रोम छोड़ना पड़ा। इसलिए मैं नहीं जाता। हम बिना हारे रोम छोड़ दें, वह उचित है। लेकिन इतनी जल्दी छोड़ने को यहूदी राजी न थे; तो पुरोहितों से पूछा, लेकिन कोई राजी न हुआ। सिनागाग में जो आदमी बुहारी 386 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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