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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 मैत्री है। कला आनी चाहिए मिट्टी को कमल बनाने की। ___ तो पूरब ने दो तरह की कलाएं विकसित की मनुष्य को कामवासना के पार ले जाने वाली। उनमें एक कला है 'तंत्र' की और एक कला है 'योग' की । तंत्र कहता है, जहर का उपयोग अमृत की तरह किया जा सकता है। और तंत्र कहता है, जो विकृत है, जो रुग्ण है, उसे भी स्वस्थ किया जा सकता है। जहां जीवन नीचा मालूम पड़ता है, उस नीची सीढ़ी का उपयोग भी ऊपर चढ़ने के लिए किया जा सकता है। पत्थर भी, मार्ग के रोड़े भी, सोपान बनाये जा सकते हैं। ___ तो तंत्र निषेध नहीं करता कामवासना का । और तंत्र कहता है, कामवासना का इस भांति उपयोग किया जा सकता है कि उसके उपयोग से ही व्यक्ति उसके पार चला जाये । योग ठीक दूसरी तरफ से खोज करता है। योग कहता है, कामवासना के उपयोग की भी कोई जरूरत नहीं है। कामवासना का बिना उपयोग किये ही कामवासना के प्रति साक्षीभाव साधा जा सकता है। और जिस मात्रा में साक्षीभाव सधता है, उसी मात्रा में कामवासना से आत्मा के संबंध टूटते चले जाते हैं। । ये दोनों परंपराएं बिलकुल विपरीत हैं और बिलकुल एक ही मंजिल पर ले जाती हैं। और जो ज्ञानी इस बात को नहीं समझ पाता, वह कुछ भी नहीं समझ पाया है। विपरीत मार्गों से भी एक मंजिल पर पहुंचा जा सकता है । तंत्र और योग में कोई संघर्ष नहीं है, साधन का संघर्ष है,अंतिम लक्ष्य का कोई संघर्ष नहीं है। महावीर महायोगी हैं। इसलिए महावीर तंत्र की किसी प्रक्रिया के समर्थन में नहीं हैं। महावीर कहते हैं : कामवासना जैसी है, उसका बिना उपयोग किये छोड़ देना जरूरी है। वे कहते हैं, जितना उपयोग किया जाये, उतना ही डर है कि आदत प्रगाढ़ होती चली जाये। उनका भय भी ठीक है। सौ में से निन्यानबे आदमियों के लिए यही ठीक मालूम पड़ेगा कि खतरे से दूर रहें । क्योंकि खतरे की आदत भी बन सकती है। और हम न भी चाहें, तो भी एक यांत्रिक आदत के जाल में फंस जाते हैं। अधिक लोग कामवासना में इसलिए उतरते हैं कि वह एक रोज की आदत हो गयी है; कुछ रस भी नहीं पाते; कुछ सुख भी नहीं मिलता । शायद कामवासना से गुजर कर दुख ही मिलता है; विषाद मिलता है, रुग्णता मिलती है और ऐसा लगता है कुछ खोया । लेकिन फिर भी एक बंधी हुई आदत है और आदमी उस आदत के पीछे दौड़ा चला जाता है। महावीर कहते हैं कि कठिन है यह बात कि आदमी कामवासना के बीच कामवासना का उपयोग करके पार हो सके; क्योंकि कामवासना इतनी प्रगाढ़ है; उसका पंजा इतना मजबूत है। तो उचित यही है कि उसका उपयोग ही न किया जाये और उससे साक्षी-भाव साधा जाये। लेकिन जैसा तंत्र का खतरा है कि आदत बन जाये, वैसे ही योग का खतरा है कि दमन बन जाये। खतरे तो हर मार्ग पर हैं। जो चलेगा उसके लिये खतरा है; जो नहीं चलता, उसके लिए कोई खतरा नहीं है । जो चलेगा वह भटक सकता है, इसलिए भटकने से मत डरना । क्योंकि जो भटकने से बहुत डरता है, वह चलता ही नहीं। भटकने वाले भी कभी न कभी पहुंच जायेंगे, लेकिन जो चलते ही नहीं, वे कभी भी नहीं पहुंच सकते। इसलिए भूल करने से कभी भयभीत मत होना । भूल सुधारी जा सकती है। लेकिन भूल से कोई इतना भयभीत हो जाये कि कुछ करे ही नहीं कि कहीं भूल न हो जाये, तो फिर सुधार का कोई उपाय नहीं है। __जीवन में एक ही असलफता है, और वह है प्रयास ही न करना । गलत प्रयास भी कभी न कभी सफल हो जाता है। लेकिन प्रयास ही कोई न करे, तब तो सफलता का कोई उपाय नहीं है। हिम्मत से भूल करना, हिम्मत से भटकने की तैयारी रखना; क्योंकि जो भटक सकता है, वह पहुंच भी सकता है । भटकने में भी पैर ही चलते हैं, श्रम होता है, संकल्प होता है। एक बात निश्चित है कि अगर कोई चलता ही जाये तो कितना ही लंबा भटकाव हो, पार हो 360 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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