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कौन है पूज्य ? यह एक अलग कीमिया है; अध्यात्म की अपनी एलकेमी है, अपना रसायन-विज्ञान है। गुरु कुछ कहे, तो पहले तो मन यही होगा कि पहले हम सोच लें, ठीक भी कह रहा है कि गलत । क्या सोचेंगे आप? कैसे सोचेंगे आप? आपको ठीक का पता है, तो आप पता लगा सकते हैं कि गुरु जो कह रहा है, वह ठीक कह रहा है या गलत । अगर आपको ठीक का पता ही नहीं है, और निश्चित ही पता नहीं है, नहीं तो गुरु के पास आने की कोई आवश्यकता न थी, आप कैसे सोचेंगे कि क्या ठीक है और क्या गलत? और जिस बुद्धि से आप सोचेंगे, वह तो आपका ज्ञान है अब तक का इकट्ठा किया हुआ; उससे आप कहीं भी नहीं पहुंचे । उसी से सोचेंगे अतीत के अनुभव और ज्ञान को आगे ले आकर गुरु का भविष्य में जाता हुआ ज्ञान आप परखेंगे। गुरु वह कह रहा है जो आप भविष्य में होंगे और आप उस ज्ञान से जांचेंगे जो आप अतीत में थे। ___ कोई मिलना नहीं हो पायेगा। आपको, जैसे आप जूते बाहर उतार देते हैं मंदिर के, ऐसे ही अपनी खोपड़ी भी बाहर ही रखकर आनी होगी। तो ही गुरु के साथ कोई मिलन हो सकता है। ऐसा नहीं कि गुरु आपके पूछने से इनकार करता है। पूछने की कोई मनाही नहीं है, लेकिन पूछने का ढंग स्वीकार करने के लिए हो । आप इसलिए पूछते हैं, ताकि और जान सकें; इसलिए नहीं पूछते हैं कि आप विरोध में कोई बात खड़ी कर रहे हैं। आप अपने को ला रहे हैं और आप जांचेंगे।
जांचना हो तो पहले काफी जांच लेना चाहिये, लेकिन एक बार किसी के पास गुरु-भाव उत्पन्न हुआ हो तो फिर सब जांच-परख नीचे रख देनी चाहिये । करीब-करीब ऐसे ही जैसे आपको आपरेशन करवाना हो, डेलिकेट, नाजुक आपरेशन हो, तो आप पता लगाते हैं, कौन सबसे अच्छा सर्जन है । ठीक है, पहले पता लगा लें। लेकिन एक बार आपरेशन की टेबिल पर लेट जाने के बाद कृपा करके अब कुछ न करें। यह मत कहें कि यह चमचा उठा, वह कांटा उठा, यह छुरी से काम कर और इस तरह काट, और इस तरह निकाल! आप बिलकुल अब कुछ न करें। अब आप पूरी तरह छोड़ दें सर्जन के हाथ में । एक भरोसा, एक ट्रस्ट चाहिये। अगर आप पूरी तरह छोड़ दें तो आपको कम से कम कष्ट होगा।
मनोविज्ञान तो यह अनुभव करता है कि अगर सर्जन की टेबिल पर मरीज अपने को पूरी तरह छोड़ दे, तो उसे बेहोश करने की जरूरत नहीं होगी। अगर वह इतना स्वीकार कर ले-ठीक है, तो उसे बेहोश भी करने की जरूरत नहीं होगी। बेहोश भी इसीलिए करना पड़ता है कि वह जो भीतर बैठा हुआ अहंकार है, वह बीच में दखलंदाजी करेगा कि यह आप क्या कर रहे हो? कहीं गलती तो नहीं कर दोगे? कहीं जान तो नहीं ले लोगे? यह क्या हो रहा है? उसे बेहोश करना इसलिए जरूरी है ताकि वह बिलकुल सो जाये और सर्जन उन्मुक्त-भाव से मरीज को भूलकर, मरीज का आपरेशन कर सके। __ अध्यात्म बड़ी गहरी सर्जरी है। कोई सर्जन इतनी गहरी सर्जरी तो नहीं करता है। क्योंकि हड्डी नहीं काटनी, न मांस-मज्जा काटना है; आपकी पूरी आत्मा के साथ जुड़े हुए संस्कार, आत्मा के साथ जुड़े हुए परमाणु, उनको काटना है। इससे बड़ी और कोई शल्य-चिकित्सा नहीं हो सकती। इतनी बड़ी शल्य-चिकित्सा तभी संभव है, जब कोई इतने सहज भाव से गुरु के हाथ में छोड़ दे कि अगर वह मारता भी हो, तो भी संदेह न उठाये। . __ इस निस्संदिग्ध अवस्था में सुने हुए वचन सहज ही स्वीकृत हो जाते हैं। बुद्धि बीच में नहीं आती, पूरे जीवन में प्रविष्ट हो जाते हैं। दरवाजे पर कोई पहरेदार नहीं रोकता, हृदय तक बात चली जाती है। और उसके स्वीकृत वचनों के अनुसार कार्य पूरा करता है। ‘जो गुरु की कभी अवज्ञा नहीं करता, वही पूज्य है।'
गुरु की अवज्ञा करनी हो तो गुरु को छोड़ देना चाहिये, अवज्ञा की कोई जरूरत नहीं है। कोई और गुरु की तलाश में निकल जाना चाहिये। गुरु का मतलब ही यह है कि आपने वह आदमी खोज लिया जिसकी आप अवज्ञा न करेंगे। गुरु का और कोई मतलब नहीं
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