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________________ AL मने सुना है, एक अंधेरी रात में भयंकर आंधी-तूफान उठा, साथ में भूकंप के धक्के भी आये । मुल्ला नसरुद्दीन का पूरा मकान गिर गया। कुछ बचा भी नहीं, सब नष्ट हो गया। नसरुद्दीन, लेकिन बिना चोट खाये बाहर भागकर आ गया । घबड़ा तो बहुत गया, हाथ-पैर उसके कांपते थे, लेकिन हाथ में एक शराब की बोतल बचाये हुए बाहर आ गया। जो बचाने योग्य उसे लगा, उस गिरते हुए, टूटते घर में, वह शराब की बोतल थी! बाहर आकर बैठ गया; आंख से आंसू बहने लगे। सब जीवन की कमाई नष्ट हो गयी। पड़ोस के लोग आ गये। पड़ोस के ही एक चिकित्सक ने आकर नसरुद्दीन को कहा कि थोड़ी-सी ये शराब ले लो तो थोड़ी स्नायुओं को ताकत मिले। तुम बहत घबड़ा गये हो, थोड़े आश्वस्त हो सकते हो। नसरुद्दीन ने कहा, 'नथिंग डूइंग, दैट आई एम सेविंग फार सम इमरजेन्सी! यह जो शराब की बोलत है, किसी दुर्घटना के लिए है; इसे किसी आपत्कालीन, संकटकालीन स्थिति के लिए बचा रहा हं!' जीवन में आप भी जीवन की निधि को किसलिए बचा रहे हैं ? जीवन की ऊर्जा को किसलिए बचा रहे हैं ? कल पर टाल रहे हैं, परसों पर टाल रहे हैं, और दुर्घटना अभी घट रही है। प्रतिपल जीवन मृत्यु में फंसा है, और जिसे आप जीवन कहते हैं, वह सिवाय मरने के और कुछ भी नहीं है। नीत्से ने कहा है कि जीवन अपना अतिक्रमण कर सके, सेल्फ ट्रान्सेन्डेन्स, तो ही जीवन है । जो जीवन अपने ही भीतर घूम-घूमकर नष्ट हो जाये, वह जीवन नहीं है । जब मनुष्य स्वयं को पार करता है, जिन क्षणों में पार होता है, उन्हीं क्षणों में जीवन की वास्तविक परम अनुभूति उपलब्ध होती है। जब आप अपने से ऊपर उठते हैं, तभी आप परमात्मा के निकट सरकते हैं। जितना ही कोई व्यक्ति स्वयं के पार जाने लगता है, उतना ही प्रभु के निकट पहुंचने लगता है। लेकिन आप जीवन की ऊर्जा का क्या उपयोग कर रहे हैं ? किस संकट के लिये बचा रहे हैं? संकट अभी है-इसी क्षण । और जिसे आप जीवन कहते हैं, बड़ी हैरानी की बात है, उसे कैसे जीवन कह पाते हैं---सिवाय दुख, और पीड़ा और संताप के वहां कुछ भी नहीं है—न कोई आनंद का संगीत है; न कोई अस्तित्व की सुगंध है; न कोई शांति का अनुभव है-न किसी समाधि के फूल खिलते हैं, और न किसी परमात्मा का साक्षात्कार होता है। क्षुद्र में व्यतीत होता जीवन...उसे जीवन कहना ही शायद उचित नहीं। प्रथम महायुद्ध के पहले जब एडोल्फ हिटलर दुनिया की सारी ताकतों का मनोबल तोड़ने में लगा था, युद्ध के पहले उनका संकल्प 315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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