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पूज्य - सूत्र
आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं । जहोवइट्ठ अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुज्जो || अन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्ठया समुयाणं च निच्वं । अलुयं नो परिदेवएज्जा, लद्धुं न विकत्थई स पुज्जो || संथारसेज्जासणभत्तपाणे अपिच्छाया अइलाभे वि सन्ते । जो एवमप्पाणऽभितोसज्जा, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो ॥ साहू अहि साहू, गिण्हाहि साहू गुण मुंच साहू । वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पूज्जो ॥
चार प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरु वचनों को सुनता है एवं स्वीकृत कर वचनानुसार कार्य पूरा करता है, जो गुरु की कभी अवज्ञा नहीं करता, वही पूज्य है ।
जो केवल संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए अपरिचित भाव से दोष-रहित उन्छ-वृत्ति से भिक्षा के लिए भ्रमण करता है, जो आहार आदि न मिलने पर भी खिन्न नहीं होता और मिल जाने पर प्रसन्न नहीं होता है, वही पूज्य है।
जो संस्तारक, शय्या, आसन और भोजन - पान आदि का अधिक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़ा ग्रहण करता है, संतोष की प्रधानता में रत होकर अपने आपको सदा संतुष्ट बनाये रखता है, वही पूज्य है ।
मनुष्य साधु होता है और अगुणों से असाधु । अतः हे मुमुक्षु ! सदगुणों को ग्रहण कर और दुर्गुणों को छोड़ । जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर राग और द्वेष दोनों में समभाव रखता है, वही पूज्य है 1
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