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महावीर-वाणी भाग : 2
दाढ़ी खींचेगा और कहेगा, 'बाबा!' ___...गिर न जाये, उसे संभालने को बच्चे को, उसने हाथ नीचे किया... वह जो सिर पर मटकी थी, वह नीचे गिरकर फूट गई!... वे
चार आने भी हाथ से गये! ___ मगर ये शेखचिल्ली की कहानी नहीं है, आदमी के मन की कहानी है। मन शेखचिल्ली है। आपका सबका मन हिसाब लगा रहा है, ऐसा हो जायेगा, फिर ऐसा हो जायेगा, फिर ऐसा होता चला जायेगा । और डर यह है कि कहीं मटकी न फूट जाये। अकसर फूट जाती है। अंत में जीवन के आदमी पाता है कि मटकी फट गई! चार आने हाथ के भी खो गये!
महावीर कहते हैं, मन को सिकोड़ना। जितना फैला हुआ मन उतना दुख, यह सूत्र है । जितना सिकुड़ा हुआ मन, उतना सुख । मन अगर बिलकुल शून्य पर आ जाये तो ध्यान हो जाता है। जब मन इतना सिकुड़ जाता है कि कुछ भी सिकोड़ने को नहीं बचता; बिलकुल सेंटर पर, केन्द्र पर आ गया; सब किरणें सिकुड़कर आ गईं वापिस; अपने ही घोंसले में लौट आया मन-उसको महावीर कहते हैं, 'मनोगुप्ति।'
'वचनगुप्ति'...शब्दों को भी मत फैलाना, क्योंकि शब्द जाल में डाल देते हैं। किसी से बोले कि उपद्रव शुरू हुआ, संबंध निर्मित हुआ। बोलने का अर्थ है दूसरे तक पहुंचे। बोलना एक सेतु है; दूसरे से संबंध निर्माण करना है। झंझट होगी। आपने अच्छी ही बात कही हो तो भी जरूरी नहीं कि दूसरा अच्छी ही तरह ले, दूसरा अपने ढंग से लेगा।
बोलकर उपद्रव बनता है। आप खयाल करें अपनी जिन्दगी में । आपने जितने उपद्रव, झगड़े-झांसे खड़े किये होंगे, वे सब बोलकर किये होंगे। काश, आप चुप रह जाते तो शायद जिंदगी और ढंग की होती । तो जब बोलना ऐसा लगे कि किसी के हित में नहीं है, तब रोक लेना । लेकिन हम चाहते हैं, बोले चले जाते हैं, कुछ भी कहे चले जाते हैं। _ मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में चल रहा है। पास में ही एक आदमी बैठा हुआ शांति से अपना अखबार पढ़ रहा है। लेकिन मुल्ला बेचैन है कि अखबार अलग करे तो कुछ बातचीत हो। ___ इसलिए ट्रेन में लोग जल्दी बातचीत शुरू कर देते हैं। और ऐसी बातें कह देते हैं अजनबियों से, जो उन्होंने अपने घर में अपनी पत्नी या अपने पति से भी न कही होतीं । अजनबियों से कन्फेशन शुरू कर देते हैं, क्योंकि बोलने की बेचैनी है। गाड़ी में बैठे-बैठे बेचैनी होती
नसरुद्दीन ने पूछा कि 'आप, आप मुसलमान हैं क्या? मुसलमान मालूम होते हैं।' उस आदमी ने सिर्फ अखबार से नजर उठाकर कहा कि 'नहीं, मैं मुसलमान नहीं हूं।' वह थोड़ा डरा भी कि यह आदमी मुसलमान दिखता है-मुसलमान हूं, ऐसा कहूं भी, या मुसलमान होता तो झंझट होती, ये फिर आगे बढ़ाता बात को । मामला खत्म हो गया। वह आदमी मुसलमान है भी नहीं। वह फिर अपना अखबार पढ़ने लगा। लेकिन नसरुद्दीन ने कहा कि 'बिलकुल निश्चित, निश्चित ही मुसलमान नहीं हो?'
उस आदमी ने कहा कि 'कह तो दिया आपसे, इसमें निश्चय की क्या बात है? मुसलमान नहीं हूं।' नसरुद्दीन फिर थोड़ी देर में बोला, 'एब्सोल्यूटली? बिलकुल पक्का?' उस आदमी ने झंझट छुड़ाने के लिए, कि अखबार न पढ़ने देगा यह आदमी, कहा कि 'हां भाई हैं, गलती हो गई जो कह दिया कि नहीं हूं। तो नसरुद्दीन ने कहा, 'फनी, यू डोन्ट लुक लाइक ए मोहम्डन-मुसलमान जैसे दिखाई नहीं पड़ते।'
इसी ने उसको 'मुसलमान हूँ'-ऐसा कहलवा दिया और अब कह रहा है कि आप मुसलमान जैसे दिखाई नहीं पड़ते महावीर कहते हैं कि वचन व्यर्थ बाहर न जायें। और सार्थक कितने वचन हैं? अगर आप चौबीस घंटे देखेंगे, हिसाब रखेंगे तो आप
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