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पांच समितियां और तीन गुप्तियां
कम से कम इस स्थिति में होना चाहिए कि दूसरे उसे प्रभावित न कर सकें । कारण बिलकुल दूसरा है । महावीर की नजर बिलकुल दूसरी है। महावीर कहते हैं, स्त्री को मत छूना कि कहीं तुम्हारी वासना उसे सजग न कर दे, कहीं तुम्हारी वासना उसमें प्रविष्ट होकर उसे पीड़ा और हिंसा का कारण न बन जाये।
महावीर की पूरी चिंता एक है कि तुम्हारे कारण किसी को किसी तरह की हानि और दुख और पीड़ा का उपाय न हो-तुम अपने से जो भी छोड़ना हो, वह इस तरह छोड़ना। ___ यह अगर ठीक से पकड़ा जाये तो बहुमूल्य है, अगर क्षुद्रता से पकड़ा जाये तो इससे बड़ी मजाक की स्थिति पैदा हो जाती है, हास्यास्पद हो जाता है । जैन साधुओं का एक वर्ग है जो मुंह पर पट्टी बांधे हुए है । वह इसी उच्चार-समिति के कारण कि कहीं श्वास से कोई कीड़ा-मकोड़ा, कोई हवा का जीव-जन्तु न मर जाये।
बात तो ठीक है...! बात तो ठीक है, लेकिन हास्यास्पद हो गई है। मजाक कर लिया, क्षद्र पर ले आये चीजों को। तब तो हिलने-डुलने से भी कोई मर रहा है। श्वास लेने से भी कोई मर ही रहा है, एक श्वास में कोई एक लाख कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, महावीर के हिसाब से नहीं, विज्ञान के हिसाब से । वह तो नष्ट हो ही रहे हैं । कागज की या कपड़े की पट्टी उनको रोक नहीं सकती, वे इतने सूक्ष्म हैं। वे इतने सूक्ष्म हैं कि आंखों से देखे नहीं जा सकते, सिर्फ खुर्दबीन से देखे जा सकते हैं । इसीलिए तो लाखों एक श्वास में नष्ट हो जाते हैं । वे तो नष्ट हो ही रहे हैं, लेकिन एक मजाक कर लिया। लेकिन मुंह पर पट्टी बांधकर आदमी समझ रहा है, सब ठीक हो गया, समिति पूरी हो गई। समिति को बहत क्षद्र जगह ले आये।
बुरा नहीं है, बांध लेने में कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन बांध लेने को बड़ा गौरव समझ लेना नासमझी है। बांध लेना ठीक है, जितना कम हिंसा हो उतना ठीक है । लेकिन इसे साधना समझ लेना या सिद्धि समझ लेना; और समझ लेना कि कोई बहुत ऊंची बात हो गई; और जो नाक पर पट्टी नहीं बांधे हैं वे पापी हैं, नरक जाएंगे...भ्रांति हो गई!
ये पांच समितियां हैं और तीन गुप्तियां है-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति।
गुप्ति का अर्थ है : सिकोड़ना और गुप्त करना । 'मनोगुप्ति' का अर्थ है, अपने मन के फैलाव को सिकोड़ना । आपका मन बड़ा फैला हुआ है। यह आकाश भी छोटा है, इससे भी ज्यादा फैला हुआ है। आप फैलाते रहते हैं मन को । बम्बई में रहते होंगे, लेकिन मन न्यूयार्क में घूमता रहता है; कि लन्दन में घूमता रहता है कि कब यात्रा पर निकल जायें। मन फैलता चला जाता है। __ जापान की एक कम्पनी 1975 के लिए चांद पर जाने के टिकिट बेच रही है। काफी दाम हैं। लेकिन सभी लोगों को मिल नहीं रही,
यू लग गया है। आदमी का मन...! अभी 1975 को देर है। आप बचेंगे कि नहीं बचेंगे। और चांद पर कुछ है नहीं, कुछ है भी नहीं देखने योग्य । लेकिन, फिर भी चांद पर जाने का मन है।
मन फैलना चाहता है। मन जितना फैल जाए उतना रस लेता है । तो महावीर कहते हैं, मन को सिकोड़ना । उसे इतना सिकोड़ लेना कि वह सिर्फ तुम्हारे हृदय में रह जाये, कहीं भी उसका फैलाव न हो। किसी वासना में, किसी इच्छा में, किसी एषणा में उसको मत फैलाना । खींचते जाना और जिस दिन मन शुद्ध हृदय में ठहर जाता है, उस दिन अदभुत आनंद का जन्म होता है। _ नरक है हमारे मन का फैलाव, और आप फैलाये चले जाते हैं। शेखचिल्ली की कहानी आपने पढ़ी होगी, जो फैलाये चला जाता है और बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। दूध बेचने जा रहा है। सिर पर दूध की मटकी रखे हुए है; और खयाल आता है कि दूध अगर बिक गया तो चार आने मिलेंगे। और अगर ऐसा होता रहा तो आधे साल में एक भैंस अपनी खरीद लूंगा। अगर भैंस खरीद ली, उसके बच्चे होंगे। बढ़ता जायेगा धन, फिर शादी कर लूंगा। शादी हो जायेगी, बच्चे होंगे। छोटा बच्चा किलकारी मारेगा और गोदी में बैठेगा,
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