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महावीर वाणी भाग 2
संन्यासी को अकसर लोग देने को उत्सुक हो जाते हैं। जिसके पास कुछ नहीं है, जिसने सब छोड़ा, एक अर्थ में सभी लोग उसको देने के लिये आतुर हो जाते हैं। तो महावीर ने कहा, आदान-निक्षेप : लोग दें सिर्फ इसलिए कि किसी ने दिया, मत ले लेना; सिर्फ इसलिए कि मिल रहा था, क्या करें - हमने तो कुछ मांगा न था, हमने कुछ कहा न था... बिना कहे मिला, बिना मांगे मिला ! तो भी महावीर कहते हैं कि तुम्हारी जरूरत हो तो ही लेना, अन्यथा धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाना – मत लेना ।
और पांचवां है—‘उच्चार' या 'उत्सर्ग' निक्षेप । यह बहुत बहुमूल्य है । महावीर ने कहा है कि मल-मूत्र, किसी को दुख हो, किसी को पीड़ा हो, दुर्गंध आए, किसी जीव का जीवन नष्ट हो – ऐसी जगह मल-मूत्र मत छोड़ना । ऐसी जगह खोजना साफ सुथरी, सीधी-सपाट, देखकर होशपूर्वक कि कोई कीड़ा-मकोड़ा, कोई जीव-जन्तु आपके मल-मूत्र में दबकर तो नहीं मर जायेगा । ऐसी जगह खोजना कि किसी को आपके मल-मूत्र से कठिनाई तो न होगी; कोई देखकर पीड़ा तो अनुभव नहीं करेगा; कोई दुर्गंध से तो परेशान नहीं होगा ।
यह तो इसका मोटा अर्थ है, जो जैन साधु पकड़े हुए हैं; इसका सूक्ष्म अर्थ बहुत गहरा , जिस पर पकड़ खो गई है। मल-मूत्र ही केवल मल-मूत्र नहीं है, आप जो भी अपने बाहर छोड़ते हैं, वह सभी मल-मूत्र है। आपकी सभी इंद्रियों से जो व्यर्थ हो गया है, वह बाहर छूटता है। आपको पता नहीं कि आपकी आंख भी कचरा बाहर फेंकती है; आपके हाथ का स्पर्श भी कचरा बाहर फेंकता है; आपके कान, आपकी जीभ — सब कचरा बाहर फेंकते हैं। असल में जो भी आप भीतर लेते हैं, उस सब को किसी न किसी रूप में बाहर फेंकना पड़ता
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जो भी बाहर से आया है, उसे बाहर फेंकना पड़ेगा। आपने भोजन किया, तो या तो वह पच जायेगा, खून बन जाएगा, मल होकर निकल जायेगा, नहीं पचा तो वमन हो जाएगी। लेकिन जो भी बाहर से लिया है, वह बाहर जायेगा। जो भीतर का है वही भीतर रहेगा, बाकी तो सब बाहर जायेगा । आपने शास्त्र पढ़ लिया, अगर पच गया तो आपका जीवन बन जायेगा, अगर नहीं पचा तो आप किसी की खोपड़ी पर उसे मल-मूत्र की तरह छोड़ेंगे। आपने कुछ भी भोगा, अगर पच गया तो ठीक, नहीं पचा तो आपका भोग भी कचरे की तरह चारों तरफ दिखाई पड़ेगा ।
आप पूरे समय अपने से रेडिएट कर रहे हैं विद्युत की तरंगें, जो आपके भीतर कचरा हो गई हैं। तो महावीर कहते हैं कि अपने कचरे को, अपने मल-मूत्र को — इसमें सभी कुछ सम्मिलित है, जो आपके भीतर गया और जो बाहर फेंकना पड़ेगा। सभी कुछ सम्मिलित है : आपके शब्द, आपका शास्त्र, आपका ज्ञान; आपने आंखों से जो पिया, कानों से जो सुना, नाक से जो गंध ली - वह सब बाहर फेंकी जायेगी। इससे दूसरे को कोई भी पीड़ा और कष्ट न हो, इससे दूसरे की हिंसा न हो ।
इसको महावीर ने 'उच्चार समिति' कहा है : जो भी बाहर जाए, उससे किसी को पीड़ा न हो ।
अब यह बड़े मजे की बात है, और कई दफा कितनी जटिल हो जाती है। जैन साधु किसी को छुएगा नहीं। मगर वह इसलिए नहीं छू रहा है कि कहीं दूसरे को छूने से वह अपवित्र न हो जाये! महावीर का प्रयोजन बिलकुल दूसरा है। दूसरों को मत छूना कि कहीं दूसरा तुम्हारी अपवित्रता से न भर जाये। मगर आदमी का अहंकार बड़ा कुशल है । उसमें से रास्ते निकाल लेता है। जैन साधु संभलकर चलता है, किसी को छू न ले। वह सोच रहा है कि वह अपवित्र न हो जाये कोई पापी को छू ले तो कोई अपवित्र न हो जाये ।
नहीं, महावीर कहते हैं, दूसरे को छूते वक्त आपके हाथ से जो ऊर्जा जा रही है, शरीर से जो ऊर्जा जा रही है, वह दूसरे को दुख, कष्ट, हानि न पहुंचाये। ये हानियां कई तरह की हो सकती हैं।
जैन-साधु स्त्री को नहीं छुयेगा, इस कारण कि कहीं स्त्री की वासना उसमें प्रवेश न कर जाए। यह मूढ़तापूर्ण बात है । साधु को तो
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