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आत्मा का लक्षण है ज्ञान
मैं किसी पाप में नहीं उतर सकता। मैं सिर्फ आजीविका के लिए, दो पैसे कमाने के लिये नाव चलाता हूं।'
स्मगलर नाव में चढ़ आया और उसने कहा कि 'मैं हजार रुपये दूंगा।' साधु ने कहा कि 'छोड़ रुपयों की बात ही छोड़। तू रुपयों से मुझे प्रलोभित न कर पायेगा ।' उसने कहा कि 'मैं तुझे दस हजार दूंगा।'
जैसे ही उसने कहा, दस हजार दूंगा, साधु ने उसे जोर से धक्का दिया और नीचे गिरा दिया। उस आदमी ने कहा, 'सीधी तरह क्यों नहीं करते?' साधु ने कहा कि 'तू बिलकुल मेरे करीब आया जा रहा है, मेरे आस्रव के करीब आया जा रहा है। दस हजार...! मेरा दरवाजा खुला जा रहा है। तू हट, भाग यहां से ।'
हर एक की सीमा है। हम सबने सीमायें बांध रखी हैं। कोई पांच रुपये पर प्रलोभित हो जाता है, कोई पचास रुपये पर, कोई पांच सौ पर, कोई लाख पर। पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इसका — क्योंकि मतलब इतना ही है कि आपके आस्रव का दरवाजा अपनी एक शर्त रखे हुए है। और जब भी आप बेचैन होते हैं, तो उसका मतलब है दरवाजा खुलने के करीब है। बहुत सी स्त्रियों के पास से आप बिलकुल शांत गुजर जाते हैं। उसका मतलब है कि उनकी स्थिति आपका दरवाजा खोलने के लिए काफी दस्तक नहीं है। जि स्त्री के पास आप बेचैन होने लगते हैं, उसका अर्थ है कि दरवाजा खुलना चाहता है। बेचैनी का मतलब है कि भीतर अब कुछ खुलना चाहता है और बाहर से भीतर कुछ प्रवेश करना चाहता 1
हम किस चीज के प्रति खुले हैं, इसका निरंतर ध्यान रखना जरूरी है। अगर हम पाप के प्रति खुले हैं तो पाप इकट्ठा होता चला जायेगा; अगर हम पुण्य के प्रति खुले हैं तो पुण्य इकट्ठा होता चला जायेगा। जिस तरफ आप खुले हैं, उसकी आप तलाश करते हैं। हर आदमी अपने ही आस्रव के लिए खोज कर रहा है। अगर आप चोर हैं, तो बहुत जल्दी आप चोरों से मिल-जुल जायेंगे, अगर आप धार्मिक हैं तो बहुत जल्दी आप धार्मिक लोगों की तलाश कर लेंगे, अगर आपके जीवन में साधुता की तरफ खुलाव है, तो आप किसी साधु को खोज लेंगे, सत्संग करने लगेंगे, अगर आप बेईमान हैं, तो आपके आस-पास बेईमान इकट्ठे हो जायेंगे।
आप जो भी भीतर से हैं, आप उसी तरफ सरक रहे हैं। हर आदमी अपना जगत खोज लेता है। जरूरी नहीं कि आप महावीर के गांव में होते, तो महावीर के पास जाते। बहुत से लोग नहीं गये। महावीर से कुछ लेना-देना नहीं मालूम पड़ा ।
मैं एक मकान में रहता था आठ वर्ष तक। मेरे मकान के ऊपर ही एक प्रोफेसर रहते थे। आठ वर्ष ! जब वे चलते थे, तो ठीक उनके पैर की आवाज मुझे सुनाई पड़ती थी। नीचे हम बात करते थे, तो उसकी आवाज उन तक जाती होगी। लेकिन कभी नमस्कार भी होने का कोई संबंध नहीं बना । फिर उनका ट्रान्सफर हो गया। वे कहीं प्रिन्सिपल होकर चले गये । कोई दो वर्ष बाद उनके कालेज में मैं बोलने गया, नये गांव में । वे एकदम रोने लगे मुझे सुनकर । कहने लगे, कि 'क्या हुआ, आठ वर्ष तक ठीक मैं आपके सिर पर बैठा हुआ था...!'
संबंध बनता है तब, जब भीतर कुछ खुलता है। आप किस तरफ खुले हैं, इसे ध्यान रखना । महावीर आस्रव को एक तत्व कहते हैं — खुलेपन को । अगर पाप की तरफ खुले हैं, तो जीवन नीचे उतरता चला जायेगा। और लक्षण यह होगा कि आप भारी होते जायेंगे, दुखी होते जायेंगे, चिंतित होते जायेंगे, विक्षिप्त होते चले जायेंगे; अगर पुण्य की तरफ खुले हैं, तो जीवन हल्का होता जायेगा, आप प्रफुल्लित होने लगेंगे, जीवन एक गीत बन जायेगा, अनजाने फूल खिलने लगेंगे और अनूठी सुगंध आपको घेर लेगी।
'संवर': महावीर कहते हैं आस्रव है आने देना, संवर है रोकना। बाहर से भीतर आने देना एक बात है, और भीतर से बाहर जाने देना दूसरी बात है। बहुत सी ऊर्जा आपकी निरंतर बाहर जा रही है, अकारण सिर्फ अज्ञान में। उसे संवरित कर लेना, उसे रोक लेना वह भी एक तत्व है।
आप रास्ते पर चले जा रहे हैं। जो भी आस-पास विज्ञापन लगे हैं, पढ़ते चले जा रहे हैं – किसलिए ? लेकिन जो भी आप पढ़ते हैं,
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