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महावीर वाणी भाग 2
ताकत खो रही है, शरीर ज्यादा भारी होकर छा रहा है।
प्रफुल्लता की तलाश, पुण्य की तलाश है। और ध्यान रहे, जो खुद प्रफुल्लित रहना चाहता है, वह दूसरे को प्रफुल्लित करेगा; क्योंकि प्रफुल्लता संक्रामक है। अगर यहां इतने लोग रो रहे हों, तो आप प्रफुल्लित नहीं हो सकते अकेले। आप दब जायेंगे। तो जो आदमी आनंदित होना चाहता है, वह दूसरे को दुख नहीं देना चाहेगा; क्योंकि आनंदित होने की बुनियादी शर्त ही यह है कि आनंद चारों तरफ हो, तो ही आप आनंदित हो पायेंगे। और जो आदमी दुखी होना चाहता है, वह अपने चारों तरफ दुखी चेहरे पैदा करेगा; क्योंकि दुख के बीच ही दुखी हुआ जा सकता है।
जब धर्म जन्म लेता है, नाचता हुआ होता है, और जब धर्म संप्रदाय बनता है तो मुर्दा हो जाता है, लाश हो जाता है— गंभीर । और उसके आसपास बैठे हुए लोग वैसे ही हो जाते हैं, जब घर में कोई मर जाता है तो पड़ोस के लोग आकर आस-पास बैठ जाते हैं। मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में, गुरुद्वारों में बैठे हैं लोग - जैसे लाश के आसपास
महावीर के पास जो प्रफुल्लता रही होगी, वह महावीर की मूर्ति के पास नहीं बची। जरा महावीर का चेहरा देखें, जाकर अपने ही मंदिर मूर्ति में जरा गौर से देखें। यह चेहरा बिलकुल हलका है, इस चेहरे पर लेशमात्र भी बोझ नहीं है; यह छोटे बच्चे की भांति निर्दोष है; इस पर कोई भार नहीं, कोई चिंता नहीं । महावीर इसीलिए नग्न भी खड़े हो गये। छोटा बच्चा ही नग्न खड़ा हो सकता है।
नहीं कि आप नग्न खड़े हो जायें तो छोटे बच्चे हो जायेंगे। कुछ पागल भी नग्न खड़े हो जाते हैं। लेकिन अगर आप नग्न खड़े हैं और आपको पता है कि आप नग्न खड़े हैं तो आप छोटे बच्चे नहीं हैं।
महावीर इतने हल्के भी पता नहीं चलता कि वे
महावीर कहते हैं—पुण्य हल्का करनेवाला तत्व है, पाप बोझिल करनेवाला तत्व है। लेकिन ध्यान रहे, पुण्य से ही कोई मुक्त नहीं हो जायेगा । पुण्य पाप से मुक्त करेगा । और आखिरी घड़ी आती है, जब आदमी को पुण्य से भी मुक्त हो जाना पड़ता है, क्योंकि वह कितना ही हल्का करता हो, फिर भी थोड़ा तो भारी होगा ही । तत्व है तो उसका थोड़ा तो बोझ होगा ही। आपने कितना ही पतला कपड़ा पहन रखा हो, मलमल पहन रखी हो ढाका की, तो भी थोड़ा सा बोझ देगी। उतना बोझ भी मोक्ष के लिए बाधा है।
गये, कि नग्न खड़े हो गये । उन्हें पता भी नहीं चला होगा कि वे नग्न हैं। और उनकी नग्नता का दूसरों को नग्न हैं । एक निर्दोष, एक इनोसेंस, एक कुवांरापन भीतर आ गया, जहां सब बोझ गिर गये ।
तो महावीर कहते हैं, पहला पड़ाव है पाप से मुक्ति, पाप के तत्वों से छुटकारा; और दूसरा पड़ाव है पुण्य से मुक्ति, और तीसरा पड़ाव नहीं है, मंजिल है आखिरी, क्योंकि वहां फिर कुछ भी नहीं बचता जिससे छूटना है।
‘आस्रव' का अर्थ है बुलाना, निमंत्रण, आने देना। आप खुले होते हैं कुछ चीजों के लिए। एक सूबसूरत स्त्री पास से निकलती है, आपके भीतर एक दरवाजा खुल जाता । साथ में पत्नी हो तो बात अलग है। तो आप दरवाजे को पकड़े रखते हैं, खुलने नहीं देते। पत्नी न हो तो दरवाजा एकदम खुल जाता है।
'आस्रव' का अर्थ है, आपकी वृत्ति खुलने की, पाप की तरफ। जहां-जहां गलत है, आप एकदम से खुल जाते हैं। शराब की दुकान हो, भीतर कोई कहने लगता है, चलो ।
‘आस्रव' का अर्थ है, खुलने की वृत्ति पाप की तरफ। वह हमारे भीतर है। हम सब आस्रव में जी रहे हैं। यह हो सकता है कि सबके आस्रव की अपनी-अपनी शर्तें हों।
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मैंने सुना है, एक साधु अपनी आजीविका के लिए एक छोटी सी नाव चलाता था, इस किनारे से उस किनारे तक नदी के । एक दिन एक स्मगलर ने उससे कहा कि 'यह सोने का इतना पाट है, इसको ले चलो, मैं सौ रुपये दूंगा ।' उसने कहा कि 'भूलकर ऐसी बात मत
करना ।
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