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________________ आत्मा का लक्षण है ज्ञान असत्य है तो इतनी चेष्टा भी क्या करनी उसको असत्य सिद्ध करने की? जो है ही नहीं उसकी चर्चा भी क्यों चलानी? इतना तो शंकर को भी मानना पड़ेगा कि है जरूर, भले ही असत्य हो । पदार्थ की सत्ता है, उसे इनकार नहीं किया जा सकता । और महावीर का एक और दृष्टिकोण समझ लेने जैसा है। ___ महावीर कहते हैं दुनिया में दो तरह के लोग हैं । एक, जिनको हम ब्रह्मवादी कहते हैं, जो कहते हैं—ब्रह्म है, पदार्थ नहीं है। दूसरे, जो बिलकुल इनका ही शीर्षासन करता हुआ रूप हैं, वे कहते हैं-ब्रह्म नहीं है, पदार्थ है । पर दोनों ही मोनिस्ट हैं, दोनों ही एकवादी हैं। एक तरफ मार्क्स, दिदरो, एपीक्यूरस, चार्वाक जैसे लोग हैं जो कहते हैं कि सिर्फ पदार्थ है, ब्रह्म नहीं है; ब्रह्म मनुष्य की कल्पना है। ठीक इनके विपरीत खड़े हुए शंकर और अद्वैतवादी हैं, बर्कले और-और लोग हैं जो कहते हैं कि पदार्थ असत्य है, ब्रह्म सत्य है। लेकिन दोनों में एक बात की सहमति है कि एक ही सत्य हो सकता है । और महावीर कहते हैं कि दोनों ही यथार्थ से दूर हैं, दोनों अपनी मान्यता को थोपने की कोशिश में लगे हैं। और दोनों सहमत हैं, दोनों में भेद ज्यादा नहीं है । भेद इतना ही है कि उस एक तत्व को शंकर कहते हैं 'ब्रह्म' और मार्क्स कहता है ‘पदार्थ'-'मैटर' । और कोई भेद नहीं है। लेकिन पदार्थ एक ही होना चाहिए। ___महावीर कहते हैं, मेरा कोई सिद्धांत नहीं है थोपने को । मैं जीवन को देखता हूं तो पाता है कि वहां दो हैं : वहां ‘पदार्थ है और 'चैतन्य' है। शरीर में भी झांकता हूं तो पाता हूं कि दो हैं : पदार्थ है और चैतन्य है । और दोनों में कोई भी एकता नहीं है; और दोनों में कोई समता नहीं है; और दोनों में कोई तालमेल नहीं है। दोनों बिलकुल विपरीत हैं, क्योंकि पदार्थ का लक्षण है, 'अचेतना'; और जीव का लक्षण है, 'चेतना' । ये चैतन्य के भेद हैं-जो महावीर कहते हैं, इतने स्पष्ट हैं कि इसे झुठलाने की सारी चेष्टा निरर्थक है। इसलिए महावीर दोनों को स्वीकार करते हैं। पर महावीर पदार्थ को जो नाम देते हैं, वह बड़ा अदभुत है, वैसा नाम दनिया की किसी दसरी भाषा में नहीं है। और दनिया के किसी भी तत्वचिंतक ने पदार्थ को पुदगल नहीं कहा है-पदार्थ कहा है, मैटर कहा है, और हजार नाम दिये हैं। लेकिन पुदगल अनूठा है, इसका अनुवाद नहीं हो सकता किसी भी भाषा में। पदार्थ का अर्थ है—जो है । मैटर का भी अर्थ है-मैटीरियल-जो है, जिसका अस्तित्व है । पुदगल बड़ा अनूठा शब्द है । पुदगल का अर्थ है-जो है, नहीं होने की क्षमता रखता है; और नहीं होकर भी नहीं, नहीं होता । पुदगल का अर्थ है-प्रवाह । महावीर कहते हैं—पदार्थ कोई स्थिति नहीं है, बल्कि एक प्रवाह है। पुदगल में जो शब्द है ‘गल', वह महत्वपूर्ण है—जो गल रहा है। आप देखते हैं पत्थर को, पत्थर लग रहा है—है, लेकिन महावीर कहते हैं- गल रहा है। क्योंकि यह भी कल मिटकर रेत हो जायेगा । गलन चल रहा है, परिवर्तन चल रहा है। है नहीं पत्थर, पत्थर भी हो रहा है। नदी की तरह बह रहा है। पहाड़ भी हो रहे हैं। ___ जगत में कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। पुदगल गत्यात्मक शब्द है। पुदगल का अर्थ है-मैटर इन प्रोसेस, गतिमान पदार्थ । महावीर कहते हैं, कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है, बह रही हैं चीजें । पदार्थ न तो कभी पूरी तरह मिटता है, और न पूरी तरह कभी होता है । सिर्फ बीच में है, प्रवाह में है। ___ आप देखें अपने शरीर को : बच्चा था, जवान हो गया, बूढ़ा हो गया। एक दफा आप कहते हैं—बच्चा है शरीर, एक दफा कहते हैं—जवान है, एक दफा कहते हैं-बूढ़ा है, लेकिन बहुत गौर से देखें, शरीर कभी भी 'है' की स्थिति में नहीं है—सदा हो रहा है। जब बच्चा है, तब भी 'है' नहीं, तब वह जवान हो रहा है। जब जवान है, तब भी 'है' नहीं, तब वह बूढ़ा हो रहा है । शरीर हो रहा है, एक नदी की तरह बह रहा है। 209 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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