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विकास की ओर गति है धर्म में बाधा है। जब आप सोचने लगते हैं, तब आप अनुभव से टूट जाते हैं। जब आप सोचते नहीं, केवल होते हैं, तब आप अनुभव से जुड़ते हैं। __तो महावीर बारह वर्ष तक अपने विचार को काटते हैं, छोड़ते हैं। एक-एक ग्रंथि, विचार की एक-एक गांठ खोलते हैं; और जब विचार की सब गांठें खुल जाती हैं, और सब बादल बिखर जाते हैं । सिर्फ खाली आकाश रह जाता है स्वयं का, तब अनुभव शुरू होता है। इस अनभव से जो वाणी प्रगट हई है, उस पर ही हम विचार करने जा रहे हैं। इसे सोचेंगे आप तो भल में पड़ जाएंगे। इसे सोचना कम, हृदय को खोलना ज्यादा, ताकि यह ऐसे प्रवेश कर सके भीतर, जैसे बीज जमीन में प्रवेश कर जाता है। जमीन बीज के संबंध में कोई विचार करने लगे, कि पहले सोच लूं, समझ लू, इस बीज को गर्भ देना है या नहीं देना, तो जमीन कुछ भी न सोच पायेगी। क्योंकि बीज में कोई फूल प्रगट नहीं है; बीज में कोई वृक्ष भी प्रगट नहीं है । होगा-वह संभावना है । अभी वास्तविक नहीं है । अभी सब भविष्य में छिपा है। लेकिन जमीन बीज को स्वीकार कर लेती है। बीज टूट जाता है भीतर जाकर । जमीन उसे पचा लेती है। बीज मिट जाता है, खो जाता है। और जब बीज खो जाता है बिलकुल, कि जमीन को पता भी नहीं चलता कि मुझसे अलग कुछ है, तब अंकुरित होता है। तब एक नये जीवन का जन्म होता है और एक वक्ष पैदा होता है।
महावीर के वचनों को अगर आप सोच-विचार में उलझा लेंगे, तो वे आपके भीतर उस जगह तक नहीं पहुंच पाएंगे, जहां हृदय की भूमि है। आप सोचना मत । आप सिर्फ हृदय की ग्राहक भूमि में उनको स्वीकार कर लेना । अगर वेव्यर्थ हैं, अगर वे निर्जीव हैं, तो अंकुर पैदा न होगा, बीज यों ही मर जायेगा। अगर वे सार्थक हैं. अगर अर्थपूर्ण हैं. अगर उनमें कोई छिपा जीवन है. अगर कोई विराट उनमें छिपी संभावना है, तो जिस दिन आप उन्हें भीतर पचा लेंगे, हृदय में जब वे मिलकर एक हो जाएंगे, और जब आपको याद भी न रहेगा कि यह विचार महावीर का है या मेरा, जब यह विचार आपका ही हो जायेगा, घुल जायेगा, पिघल जायेगा, एक हो जायेगा भीतर, तब आपको पता चलेगा, इस विचार का अर्थ क्या है। क्योंकि तभी आपके भीतर इस विचार के माध्यम से एक नये जीवन का जन्म होगा; एक नई सुगंध, एक नया अर्थ, एक नये क्षितिज का उदघाटन। ___ तो विचार के साथ हम दो तरह का व्यवहार कर सकते हैं : एक तो आलोचक का व्यवहार है कि वह सोचेगा, काटेगा, विश्लेषण करेगा, तर्क करेगा। आपको मना नहीं करता । अगर महावीर के साथ आपको आलोचक होना है आप हो सकते हैं। लेकिन आप महावीर जो दे सकते हैं, उससे वंचित रह जाएंगे। दूसरा ग्राहक का, प्रेमी का, भक्त का दृष्टिकोण-सोचता नहीं, सिर्फ रिसेप्टिविटी, सिर्फ संवेदनशील होता है, स्वीकार कर लेता है। हृदय में छिपा लेता है और प्रतीक्षा करता है उस दिन की, जिस दिन इस बीज में से अंकुर पैदा होगा। तभी, पूरा अर्थ प्रगट होगा। __ यहां मैं आपको समझाने की कोशिश करूंगा कि महावीर का प्रयोजन क्या है । लेकिन उस कोशिश से आप अर्थ को न जान पाएंगे। उस कोशिश से तो इतना ही हो सकता है कि आप राजी हो जायें और हृदय को खुला छोड़ दें। द्वार-दरवाजे खोल दें, ताकि यह किरण भीतर प्रवेश कर जाये । मेरी कोशिश आपके हृदय का दरवाजा खोलने की होगी, आपकी बुद्धि को समझाने की नहीं । अर्थ तो तभी प्रगट होगा, जब बीज आपके भीतर प्रविष्ट हो जाएंगे और आप उन्हें पचा लेंगे। __ध्यान रहे, किसी चीज का आहार कर लेना ही काफी नहीं है, उसका पचना जरूरी है। इसलिए महावीर को दो तरह के लोग अपने भीतर लेते हैं। पंडित भी अपने भीतर ले लेता है, लेकिन वह पचा नहीं पाता है। वह जो आहार कर लेता है, वह अनपचा रह जाता है। इसलिए पंडित का मस्तिष्क बोझिल होता चला जाता है उस अनपचे आहार से । उसका अहंकार प्रगाढ़ होता चला जाता है। उसकी आत्मा तो खाली बनी रहती है, लेकिन उसकी स्मृति भरती चली जाती है।
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