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________________ महावीर वाणी भाग 2 से और आपके ही प्राण की गहनता से उठते हैं, जो आपकी ही अंतरात्मा से जगते हैं, उन प्रश्नों का उत्तर भी आपकी अंतरात्मा में ही छिपा है। और जहां से प्रश्न आया है, उसी गहराई में खोजने पर उत्तर भी उपलब्ध होगा। धर्म और दर्शन का यही फर्क है। दर्शन है— प्रश्नों की बौद्धिक खोज । और धर्म है— प्रश्नों की जीवंत खोज । बौद्धिक खोज का अर्थ है - आपकी बुद्धि संलग्न है, आप पूरे के पूरे संलग्न नहीं हैं। एक खण्ड जीवन का लगा है, लेकिन पूरा जीवन - पूरा जीवन दूर है। धार्मिक खोज का अर्थ है कि बुद्धि ही नहीं, आपका हृदय भी - हृदय ही नहीं, आपकी देह भी - आपकी समग्र आत्मा, आप जो भी हैं अपनी पूर्णता में, वह पूरी की पूरी खोज में लग गई है। और जिस दिन खोज अखंड होती है, पूरी होती है, उस दिन उत्तर दूर नहीं है। महावीर ने जो भी कहा है, ये एक दार्शनिक के वचन नहीं हैं, एक फिलासफर के वचन नहीं हैं— प्लेटो या अरस्तू या कांट और हीगल के वचन नहीं हैं। महावीर ने जो भी कहा है, ये एक धार्मिक, अनुभूति को उपलब्ध व्यक्ति के वचन हैं। महावीर ने जो भी कहा है, सोचकर नहीं कहा, देखकर कहा है । इस भेद को ठीक से समझ लें, क्योंकि यह बहुत मौलिक है। सोचकर बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं। लेकिन सोचकर जो कहा जाता है, वह कितना ही ठीक मालूम पड़े, ठीक नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति प्रेम के संबंध में बहुत-सी बातें सोचकर कह सकता है। शास्त्र उपलब्ध हैं, प्रेम पर लिखे हुए काव्य उपलब्ध हैं; प्रेम की कथाएं, विश्लेषण उपलब्ध हैं; जिन्होंने प्रेम को जाना है, उनके भी शब्द उपलब्ध हैं- ये सब पढ़े जा सकते हैं, और आप भी प्रेम के संबंध में कोई धारणा बना सकते हैं, वह बुद्धि की होगी । लेकिन अगर आपको प्रेम का अपना निजी अनुभव नहीं है, तो आप जो भी कहेंगे, वह कितना ही ठीक मालूम पड़े, ठीक हो नहीं सकता । उसका ठीक मालूम पड़ना बहुत ऊपरी होगा, तार्किक होगा, शब्दगत होगा। क्योंकि जिसने प्रेम नहीं जाना, वह प्रेम के संबंध में क्या कह सकता है ? प्रेम की कोई फिलासफी नहीं हो सकती, प्रेम का सिर्फ अनुभव हो सकता है। लेकिन, तब बड़ी कठिनाई है। क्योंकि जो जान ले प्रेम को, उसे कहना मुश्किल हो जाता है। जो प्रेम को न जाने, उसे कहना बहुत आसान है, क्योंकि उसे उस कठिनाई का पता ही नहीं है जो अनुभव से पैदा होती है। जिसने प्रेम को नहीं जाना, वह दूसरों के शब्द दोहरा सकता है, और सोचेगा बात पूरी हो गई । और जिसने प्रेम को जाना है, उसके सामने एक बड़ा कठिन, दुर्गम सवाल है, जो उसने जाना है, उसे कैसे शब्दों में प्रविष्ट करे। क्योंकि जो जाना है, वह विराट है, शब्द बहुत क्षुद्र हैं। जो जाना है, वह आकाश की भांति है, और शब्द छोटी मटकियों की भांति हैं, वह उनसे भी छोटे हैं। उस बड़े आकाश को उन मटकियों में भरना, उस सागर को गागर में डालना अति कठिन है, असंभव है । महावीर जो भी कह रहे हैं, वह उनका जाना हुआ है। वह उन्होंने सोचा नहीं है, वह उन्हें ध्यान से उपलब्ध हुआ है, विचार से नहीं । और, विचार और ध्यान की प्रक्रियाएं विपरीत हैं। महावीर इस बोध के पहले बारह वर्ष तक मौन में रहे। तब उन्होंने सब विचार करना छोड़ दिये। तब उन्होंने सारी बुद्धि को तिलांजलि दे दी। तब उन्होंने चिंतना एक तरफ हटा दी। वे सिर्फ मौन होते चले गए। बारह वर्ष लम्बा समय है। निश्चित ही, मौन होना कठिन है। और महावीर को बारह वर्ष लगते हैं, तो सोच सकते हो, साधारण व्यक्ति को जीवन लग जायेंगे । चुप होना कठिन है, क्योंकि चुप होना एक तरह की मृत्यु है। आप जीते ही विचार में हैं। और जब विचार चलता होता है, तब आप को लगता है आप हैं; जब विचार खोने लगते हैं, तो आप भी खोने लगते हैं। विचार बिखरने लगते हैं, आप भी बिखरने लगते हैं। और जब विचार के सब बादल खो जाते हैं तो शून्य रह जाता है भीतर। वह शून्य महामृत्यु जैसा मालूम होता है। उस महामृत्यु के लिए जो तैयार होता है, वह ध्यान में प्रवेश पाता है। और ध्यान के बाद ही अनुभव है। विचार से कोई अनुभव नहीं होता। सच, विचार तो अनुभव Jain Education International 180 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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