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________________ महावीर वाणी भाग 1 महावीर मात्र महावीर थे। कृष्ण, बुद्ध, जीसस, मोहम्मद, लाओत्सु, गुरजिएफ – जितने जो भी उपलब्ध हुए हैं, प्रत्येक वही थे, जो वे थे, किंतु मेरा खयाल है कि कदाचित, पृथ्वी पर पहली बार ऐसा घटित हुआ है कि एक ही व्यक्ति ओशो में आज तक की समस्त उपलब्ध चेतनाएं अवतरित हो गई हैं। एक ओर जहां मेरी यह प्रतीति है, वहीं दूसरी ओर यह एक तथ्य है कि ओशो किसी तीर्थंकर अथवा अवतार की न तो पुनरुक्ति हैं और न उनमें से किसी के प्रतिनिधि । वे अद्वितीय, अनूठे और सर्वथा मौलिक हैं। ओशो ने स्वयं भी कहा है कि मैं किसी की परंपरा में नहीं हूं। मैं अपनी परंपरा का प्रारंभ हूं, जैसे ऋषभ जैन परंपरा के प्रारंभ थे। जैसे, कवि अपनी बात को कहने के लिए काव्य को माध्यम बनाते हैं, शायद, इसलिए कि गद्य में उसकी सुनने को कोई तैयार न हो । जब हृदय बोझिल हुआ, कुछ गा लिया। और मन को इस तरह समझा लिया । यों न सुनता था कि कवि की बात, जग तू किंतु, कविता ने तुझे बहला लिया ! वैसे ही, कदाचित, ओशो भी अतीत के सभी पैगंबरों, महापुरुषों और उपलब्ध चेतनाओं में बहुसंख्य को बहाना बना कर अपनी बात कह रहे हैं। ओशो तो वे भरे हुए बादल हैं, जो बरसते ही। क्योंकि हममें से कोई महावीर से जुड़ा है, कोई कृष्ण से, कोई बुद्ध से, कोई जीसस से, कोई कबीर से, इसलिए ओशो अपने लिए नहीं, करुणावश हमारे लिए कभी महावीर को बहाना बना कर बोलते हैं, कभी कृष्ण, कभी बुद्ध, कभी जीसस और कभी कबीर को । ओशो के वचनामृत को सीधे-सीधे पान करने में कदाचित हम पूर्वग्रही परंपराओं से बंधे लोग झिझकते, डरते, इसीलिए उन्होंने जो जिस प्याले से पूर्वपरिचित था, उसे उसके लिए उसी प्याले के माध्यम से अमृत उपलब्ध करा दिया। मैं जैन घर में जन्मा अवश्य, किंतु मुझे बचपन से ही ऐसा लगता था कि आदमी मात्र आदमी क्यों नहीं है, वह क्यों तो जैन हो, क्यों हिंदू और क्यों मुसलमान आदि । इसी प्रकार, मैं सोचता था कि धर्म के पीछे भी कोई विश्लेषण क्यों लगे। साधु के पीछे विशेषण की बात भी मेरी समझ में नहीं आती थी । फिर, किशोरावस्था की एक घटना ने मुझे जैन साधुओं के प्रति अश्रद्धा से भर दिया। मैं कम उम्र में ही कांग्रेस में सम्मिलित होकर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गया था और सन 1940 में जेल से लौटा ही था कि मेरे घर पर एक जैन मुनि का आहार हुआ, आहार के उपरांत मेरी मां ने उनसे मेरी शिकायत की कि यह लड़का कांग्रेस में काम करता है, अभी जेल से लौटा है, इसे समझा दें कि कांग्रेस में काम न करे; और, वे मुनि मुझे समझाने लग गए। बोले कि हम लोग बनिया हैं। हम लोगों को राजा या राज्य के पक्ष में ही सदैव रहना चाहिए। उन्होंने एक कहावत भी सुनाई, जिसका भावार्थ था कि यदि राजा कहे कि एक बिल्ली एक ऊंट को पकड़ कर ले गई है, तो हमें भी 'हांजी' 'हांजी' कहना चाहिए । मैं चकित रह गया। ये दिगंबर मुनि! ये महावीर के सत्य के व्याख्याता ! अजैन साधुओं के प्रति मुझे पहले भी श्रद्धा नहीं थी । जैन साधुओं को शारीरिक कष्ट सहन करते देख, जो थोड़ी-बहुत श्रद्धा थी, न केवल इस घटना से विलुप्त हो गई, बल्कि मुझे जैन धर्म और जैन तीर्थंकरों के प्रति भी कोई जुड़ाव नहीं रह गया था। इस प्रकार साधारणतया सभी धर्मों और साधुओं के प्रति मैं जो अनादर से भर गया था, धर्म मात्र के प्रति जो बगावत मेरे अवचेतन में प्रविष्ट कर गई थी वह कदाचित जीवन भर बनी रहती, यदि मुझे ओशो को पढ़ने, समझने और उनसे जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त न हुआ होता। यदि, सचमुच, पूर्वजन्म के कोई पुण्य हुआ करते हों और उनके कारण जीवन में शुभ संभावनाएं घटती हों तो मैं अपने को बहुत पुण्यवान मानता हूं। ओशो की ही करुणा है कि मैं Jain Education International VI For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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