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________________ प्रस्तावना ओशो की पुस्तक की प्रस्तावना लिखना ऐसा ही है जैसे कण से कहा जाए कि ब्रह्मांड के विषय में कुछ कहो। कहां ओशो-परम ज्ञान-स्वरूप, प्रेम अथवा परमात्मा के पर्यायवाच्य। और, कहां मेरी लघुता! जैसे, परमात्मा और प्रेम वर्णनातीत हैं, वैसे ही ओशो भी। इनका अनभव ही किया जा सकता है। ओशो के प्रवचनों, जो पस्तकों के रूप में प्रकाशित हो स्थिति है। उन्हें पढ़-सुन कर भी पढ़ा-सुना नहीं जा सकता। उन्हें तो, बस पीया जा सकता है। जैनों का एक शब्द है 'सर्वज्ञ'। किसी अन्य परंपरा में यह शब्द नहीं है। संयोगवश, मेरा जन्म एक जैन घर में हुआ। बचपन से सुना करता था कि तीर्थंकर सर्वज्ञ होते थे। लगता था, अतिशयोक्ति है। यदि सीमित अर्थ में ही इस शब्द को लें कि धर्म के विषय में. अध्यात्म के विषय में वे, जानने योग्य जो भी है, सब कुछ जानते थे तो भी अतिशयोक्ति मालूम होती थी। फिर ओशो को पढ़ने का अवसर मिला, और जैसे-जैसे ओशो की पुस्तकों को पढ़ता गया विविध प्रज्ञापुरुषों पर, उनके वक्तव्यों पर तथा अन्य विषयों पर, वैसे-वैसे अनुभव में आता गया कि सर्वज्ञता संभव है। तीर्थंकरों को देखा नहीं, सुना नहीं, उनके वक्तव्यों की भाषा से अपरिचित होने से उन्हें सीधा पढ़ा नहीं, इसलिए नहीं कह सकता कि वे सर्वज्ञ थे अथवा नहीं, किंतु, प्रत्यक्षतया ओशो को सुन कर, बोधगम्य भाषा में उन्हें पढ़ कर न केवल ऐसा लगता है कि ओशो, सचमुच, सर्वज्ञ हैं बल्कि स्वीकार करना पड़ता है कि वे सीमित अर्थों में नहीं, असीमित अर्थों में सर्वज्ञ हैं। पृथ्वी के कौन से ज्ञान-विज्ञान की कौन सी शाखा-प्रशाखा है, जिसमें ओशो की गति न हो। महावीर वाणी में ही ओशो ने कहा है : 'जो परम ज्ञान को उपलब्ध होता है, वहां ज्ञान अकारण हो जाता है, कोई सोर्स नहीं होता।' ओशो भी, कदाचित, इसके अपवाद नहीं। एक बार, दिवंगत श्रद्धेय स्वामी आनंद मैत्रेय से मैंने यों ही चर्चा में कह दिया कि ओशो तो ज्ञान के समद्र हैं, तो उन्होंने तत्काल मेरी भूल को सुधारते हुए कहा, समुद्र नहीं, आकाश कहो, समुद्र की तो सीमाएं होती हैं। हो सकता है कि मेरे अवचेतन में से उनकी यह उपमा बाद में इस रूप में प्रकट हुई हो। ओशो व्यक्ति नहीं घटना हैं। विराटम् का नर-तन में आकर सिमटना है। करुणावश, मुक्ति के किनारे से लौटे. क्योंकि अमृता वाणी से परमानंद बंटना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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