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महावीर-वाणी भागः 1
अब न केवल मात्र आदमी हो गया हूं, बल्कि मुझे सारे तीर्थंकरों, पैगंबरों, उपलब्ध व्यक्तियों सभी के प्रति, उनकी देशनाओं के प्रति समान श्रद्धा हो गई है। ___ भारत में जहां-जहां जैन हैं, प्रतिवर्ष वे महावीर-जयंती का आयोजन करते हैं, उनमें तथाकथित पंडित और विद्वान प्रवचन करते हैं, महावीर के गुण-गान करते हैं, वही घिसी-पिटी बातें-मुर्दा-कोई जीवंतता नहीं। महावीर के सत्य, अहिंसा, अनेकांत, उनका त्याग, तपस्या आदि-आदि पर कोरी लफ्फाजी। न उन्हें महावीर के व्यक्तित्व की गहराई की जानकारी है और न महावीर-वाणी की। किताबों की, शास्त्रों की जूठन, कोई कम, कोई जरा ज्यादा चबा कर उगलते रहते हैं। अवश्य ही इधर कुछ जेन पंडित और जैन साध चोरी-छिपे ओशो की महावीर से संबंधित पस्तकें पढ़ने लगे हैं और ओशो के विचारों को, तर्कों को व्याख्याओं को इस प्रकार अभिव्यक्त करने लगे हैं, जैसे ये उन्हीं के मौलिक हों। कुछ समय पहले की बात है, मेरे मित्र, एक जैन-पंडित मेरे पास आए और उन्होंने 'आचार्य रजनीश' की (भगवान श्री तो वे कह सकते ही नहीं, जैसा कि उस समय ओशो को संबोधित किया जाता था।) 'महावीर : मेरी दृष्टि में' पुस्तक मुझसे मांगी; पूछा, उन्हें क्या आवश्यकता पड़ गई। बोले, अब की बार महावीर-जयंती पर कानपुर से निमंत्रण मिला है। मैंने कहा, पुस्तक मैं दिए दे रहा हूं, लेकिन ओशो की किसी बात को अपने प्रवचन में कहो तो उनका हवाला देकर कहना कि उनकी अमुक पुस्तक में मैंने ऐसा पढ़ा है। बोले, ऐसा कैसे कर सकता हूं? मैंने कारण नहीं पूछा। स्पष्ट था। ओशो का उल्लेख कर देने से एक ओर जहां उनकी मौलिकता का मुखौटा उतर जाता, वहीं दूसरी ओर जिस समाज को ऐसे ही पंडितों ने ओशो के विरुद्ध विषाक्त वक्तव्य दे-देकर ओशो के प्रति निंदक बनाया है, वह समाज, मूढ़ों का वह समूह, ऐसे पंडित को ही नकार देता। अब मैं सोचता हूं, ये पंडित हैं कि चोर हैं, कायर हैं, सत्य के दुश्मन हैं। यद्यपि, इस प्रसंग में मैं कछ कट हो रहा हं जब कि ओशो ऐसी अपनी ही बातों की चोरी कर लेने वालों के प्रति भी उदार हैं। जब ओशो का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया गया कि नेपाल रेडियो 60% आपकी पुस्तकों से चुरा रहा है, तो ओशो ने जो उत्तर दिया, उसे ज्यों का त्यों उल्लेख कर देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर सकता। उदारता और निर्लिप्तता की चरम सीमा! ओशो के स्थान पर यदि महावीर होते तो शायद वे भी यही उत्तर देते। ___ 'लोग हैं, जो मेरी पुस्तकों से, मेरे वक्तव्यों से चुराते हैं। यह केवल नेपाल में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है। यह फिल्मों में हो रहा है. टी.वी. में हो रहा है. रेडियो पर हो रहा है. समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में हो रहा है, सभी तरह के लोग चराने का प्रयास कर रहे हैं। परंतु मुझे इसकी चिंता नहीं है। ___ ‘सत्य तो सत्य है। यह जरूरी नहीं है कि वह मेरे नाम के साथ जुड़ा हो। उन्हें चुराने दो। वे सत्य को चुरा रहे हैं, उन्हें अपने नाम के साथ प्रस्तुत करने दो। कोई हानि नहीं क्योंकि मेरी दिलचस्पी मेरे नाम में नहीं है। मेरी दिलचस्पी मेरे सत्य में है। अगर सत्य लोगों तक पहुंच जाए-जैसे तुमने तुम्हारे प्रश्न में कहा कि नेपाल रेडियो 60% मेरी पुस्तकों से चुरा रहा है-उनकी मदद करो सौ प्रतिशत चोरी करने के लिए। मेरा नाम असंगत है, संगत जो है वह सत्य है। और सत्य किसी की संपत्ति नहीं है—न मेरी, न तुम्हारी।
'इसलिए चोरी की भाषा में क्यों सोचना? शायद वे चुरा नहीं रहे हैं, वे प्रभावित हुए हैं, परंतु वे कायर हैं। वे नाम नहीं ले सकते, फिर भी वे मेरा काम कर रहे हैं। यह सब ठीक, उनकी सहायता करो-उनको और परिच्छेद निकाल कर दो चुराने के लिए। किसी तरह लोगों तक संदेश को पहुंचना चाहिए। सत्य सार्वभौम है, यह मेरा नहीं है, यह तुम्हारा नहीं है, इसलिए चोरी का प्रश्न ही नहीं उठता।'
और ओशो के इस वक्तव्य को पढ़ कर मैं सोचता हूं कि मैं कौन हूं जो चोरों को चोर कहूं। जिसकी संपत्ति है, वही जब लूटने
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