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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 जगह, जहां सिर झुकाया जा सकता है, तो फिर सिर झुका देना । __ इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। इन दोनों बातों में विरोध दिखायी पड़ता है, विरोध नहीं है। और अर्जुन ने भी ऐसे ही सिर नहीं झुका दिया, नहीं तो यह सारी गीता पैदा नहीं होती। उसने कृष्ण की सब तरह परीक्षा कर ली, सब तरह, चिंतन, मनन, प्रश्न, जिज्ञासा कर ली। सब तरह के प्रश्न पूछ डाले, जो भी पूछा जा सकता था, पछ लिया। तभी वह उनके चरणों में झका है। लेकिन अगर कोई कहे कि यह जारी ही रखनी है खोज, तो फिर जिज्ञासा तक ही बात रुकी रहेगी और यात्रा कभी शुरू न होगी। यात्रा शुरू करने का अर्थ ही यह है कि जिज्ञासा पूरी हुई। अब हम कोई निर्णय लेते हैं और यात्रा शुरू करते हैं। नहीं तो यात्रा कभी भी नहीं हो सकती। ___ तो, एक तो दार्शनिक का जगत है, वहां आप जीवन भर जिज्ञासा जारी रख सकते हैं। धार्मिक का जगत भिन्न है, वहां जिज्ञासा की जगह है, लेकिन प्राथमिक। और जब जिज्ञासा पूरी हो जाती है तो यात्रा शुरू होती है। दार्शनिक कभी यात्रा पर नहीं निकलता, सोचता ही रहता है। ___ धार्मिक भी सोचता है, लेकिन यात्रा पर निकलने के लिए ही सोचता है। और अगर यात्रा पर एक-एक कदम करके सोचते ही चले जाना है तो यात्रा कभी भी नहीं हो पायेगी। निर्णय के पहले चिंतन, निर्णय के बाद समर्पण । __इन मित्रों ने पूछा है कि गुरु-पद की आपकी परिभाषा बड़ी अदभुत और हृदयंगम प्रतीत हुई, लेकिन शिष्य-भाव संपूर्णतया ग्रहण करने की मेरी क्षमता नहीं है। संपूर्णतया, किस बात को ग्रहण करने की क्षमता किसमें है? आदमी का मन तो बंटा हुआ है, इसलिए हम सिर्फ एक स्वर को मान कर जीते हैं। संपूर्ण स्वर तो हमारे भीतर अभी पैदा नहीं हो सकता। वह तो होगा ही तब, जब हमारे भीतर सारे मन के खंड नायें और एक चेतना का जन्म हो। वह चेतना अभी वहां है नहीं, इसलिए आप संपूर्णतया कोई भी निर्णय नहीं ले सकते। आप जो भी निर्णय लेते हैं, वह प्रतिशत निर्णय होता है। आप तय करते हैं, इस स्त्री से विवाह करता हूं, यह संपूर्णतया है? सौ प्रतिशत है? सत्तर प्रतिशत होगा, साठ प्रतिशत होगा, नब्बे प्रतिशत होगा। लेकिन दस प्रतिशत हिस्सा अभी भी कहता है कि मत करो, पता नहीं, क्या स्थिति बने। आप जब भी कोई निर्णय लेते हैं. तभी आपका परा मन तो साथ नहीं हो सकता क्योंकि परा मन जैसी कोई चीज ही आपके पास नहीं है। आपका मन बंटा हुआ ही होगा। मन सदा ही बंटा हुआ है। मन खंड-खंड है। इसलिए बुद्धिमान आदमी इसकी प्रतीक्षा नहीं करता कि जब मेरा संपूर्ण मन राजी होगा तब मैं कुछ करूंगा। हां, बुद्धिमान आदमी इतनी जरूर फिक्र करता है कि जिस संबंध में मेरा मन अधिक प्रतिशत राजी है, वह मैं करूंगा। मगर मैंने इधर अनुभव किया कि अनेक लोग यह सोच कर कि अभी पूरा मन तैयार नहीं है, अल्पमतीय मन के साथ निर्णय कर लेते हैं। निर्णय करना ही पड़ेगा, बिना निर्णय के रहना असंभव है। एक बात तय है, आप निर्णय करेंगे ही चाहे निषेध, चाहे विधेय।। ___एक आदमी मेरे पास आया और उन्होंने कहा कि मेरा साठ-सत्तर प्रतिशत मन तो संन्यास का है, लेकिन तीस-चालीस प्रतिशत मन संन्यास का नहीं है। तो अभी मैं रुकता हूं। जब मेरा मन पूरा हो जायेगा तब मैं निर्णय करूंगा। मैंने उनसे कहा-निर्णय तो तुम कर ही रहे हो, रुकने का कर रहे हो। और रुकने के बाबत तीस-चालीस प्रतिशत मन है, और लेने के बाबत साठ-सत्तर प्रतिशत मन है। तो तम निर्णय अल्पमत के पक्ष में ले रहे हो। हालांकि उनका यही खयाल था कि मैं अभी निर्णय लेने से रुक रहा हं। आप निर्णय लेने से तो रुक ही नहीं सकते। निर्णय तो लेना ही पड़ेगा। उसमें कोई स्वतंत्रता नहीं है। हां, आप इस तरफ या उस 508 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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