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पहले एक दो प्रश्न। ___ एक मित्र ने पूछा है- 'कहीं आपने कहा था, कोई भी बात, आपका चिंतन और बुद्धि से ताल-मेल न बैठ सके तो नहीं मानना, छोड़ देना। बात चाहे कृष्ण की हो या किसी की भी हो, या मेरी हो।' ___ आपकी बहुत-सी बातें प्रीतिकर, श्रेष्ठतर मालूम होती हैं। उनसे जीवन में परिवर्तन करने का यथाशक्ति प्रयत्न भी करता हूं, लेकिन शिष्य-भाव संपूर्णतया ग्रहण करने की मेरी क्षमता नहीं है।
मैं आपकी सूचनाओं से फायदा उठा रहा हूं। अगर मेरी कुछ प्रगति हुई तो किसी दिन कोई प्रार्थना लेकर, अगर शिष्य-भाव से रहित मैं आपके समक्ष उपस्थित हो जाऊं तो आप मेरी सहायता करेंगे या नहीं?
सतयुग में कृष्ण ने कहा था, 'मामेकं शरणं ब्रज', सब छोड़ कर मेरी शरण में आ जा, इस युग में ऐसा कोई कहे तो कहां तक कार्यक्षम और उचित होगा?
इस संबंध में दो चार बातें समझ लेनी साधकों के लिए उपयोगी हैं।
पहली बात तो यह, अब भी मैं यही कहता हूं कि जो बात आपकी बुद्धि को उचित मालूम पड़े, आपके विवेक से ताल-मेल खाये, उसे ही स्वीकार करना । जो न ताल-मेल खाये उसे छोड़ देना, फेंक देना । गुरु की तलाश में भी यह बात लागू है, लेकिन तलाश के बाद यह बात लागू नहीं है। सब तरह से विवेक की कोशिश करना, सब तरह से बुद्धि का उपयोग करना, सोचना-समझना। लेकिन जब कोई गरु विवेकपूर्ण रूप से ताल-मेल खा जाये और आपकी बुद्धि कहने लगे कि मिल गयी वह जगह, जहां सब छोड़ा जा सकता है, फिर वहां रुकना मत। फिर छोड़ देना। लेकिन अगर कोई यह सोचता हो कि एक बार किसी के प्रति शिष्य-भाव लेने पर फिर इंच-इंच अपनी बुद्धि को बीच में लाना ही है, तो उसकी कोई भी गति न हो पायेगी। उसकी हालत वैसी हो जायेगी जैसे छोटे बच्चे आम की गोई को जमीन में गाड़ देते हैं, फिर घड़ी-घड़ी जाकर देखते हैं कि अभी तक अंकुर फूटा या नहीं। खोदते हैं, निकालते
कभी भी अंकर फटेगा नहीं। फिर जब गोई को गाड दिया, तो फिर थोडा धैर्य और प्रतीक्षा रखनी होगी। फिर बार-बार उखाड़ कर देखने से कोई भी गति और कोई अंकुरण नहीं होगा। ___ तो कृष्ण ने भी जब कहा है, 'मामेकं शरणं ब्रज', तो उसका मतलब यह नहीं है कि तू बिना सोचे-समझे किसी के भी चरणों में सिर रख देना। सब सोच-समझ, सारी बुद्धि का उपयोग कर लेना। लेकिन जब तेरी बुद्धि और तेरा विवेक कहे कि ठीक आ गयी वह
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