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चतुरंगीय-सूत्र
चत्तारि परमंगाणि, टुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं।। कम्माणं तु पहाणए, आणुपुवी क्याई उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययन्रि मणुस्सयं।। माणुसत्तम्मि आयाओ, जो धम्मं सोच्च सद्दहे। तवस्सी वीरियं लर्बु , संबुडे निद्भुणे रयं।।
संसार में जीवों को इन चार श्रेष्ठ अंगों का प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है-मनुष्यत्व, धर्म-श्रवण, श्रद्धा और संयम के लिए पुरुषार्थ ।
संसार में परिभ्रमण करते-करते जब कभी बहुत काल में पाप कर्मों का वेग क्षीण होता है और उसके फलस्वरूप अंतरात्मा क्रमशः शुद्धि को प्राप्त करता है, तब कहीं मनुष्य का जन्म मिलता है।
यथार्थ में मनुष्य जन्म उसे ही प्राप्त हआ जो सद्धर्म का श्रवण कर उस पर श्रद्धा लाता है और तदनुसार पुरुषार्थ कर आस्रव रहित हो अंतरात्मा पर से समस्त कर्म-रज को झाड़कर फेंक देता है।
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