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________________ मनुष्यत्व : बढ़ते हुए होश की धारा तरफ निर्णय ले सकते हैं। ___ जब एक आदमी निर्णय लेता है कि अभी मैं संन्यास नहीं ले रहा हूं तो वह सोचता है मैंने निर्णय अभी नहीं लिया है। निर्णय तो ले लिया। यह न लेना, निर्णय है। और न लेने के लिए तीस-चालीस प्रतिशत मन था और लेने के लिए साठ-सत्तर प्रतिशत मन था। इस निर्णय को मैं बुद्धिमानीपूर्ण नहीं कहूंगा। फिर एक और मजे की बात है कि जिसके पक्ष में आप निर्णय लेते हैं उसकी शक्ति बढ़ने लगती है। क्योंकि निर्णय समर्थन है। अगर आप तीस प्रतिशत मन के पक्ष में निर्णय लेते हैं कि अभी संन्यास नहीं लूंगा तो यह निर्णय तीस प्रतिशत को कल साठ प्रतिशत कर देगा। और जो आज साठ प्रतिशत मालूम पड़ रहा था वह कल तीस प्रतिशत हो जायेगा। तो ध्यान रखना, जब संन्यास लेने का सत्तर प्रतिशत मन हो रहा था, तब आपने नहीं लिया, तो जब तीस प्रतिशत ही मन रह जायेगा, तब आप कैसे लेंगे। और एक बात तय है कि सौ प्रतिशत मन आपके पास है नहीं। अगर होता तब तो निर्णय लेने की कोई जरूरत भी नहीं। ___ सौ प्रतिशत मन का मतलब है कि एक स्वर आपके भीतर पैदा हो गया है। वह तो अंतिम घड़ी में पैदा होता है, जब समाधि को कोई उपलब्ध होता है। समाधि के पहले आदमी के पास सौ प्रतिशत निर्णय नहीं होता। छोटी बात हो या बड़ी, आज सिनेमा देखना है या नहीं, इसमें भी, और परमात्मा के निकट जाना है या नहीं, इसमें भी, आपके पास हमेशा बंटा हुआ मन होता है। । दूसरी बात-निर्णय आपको लेना ही पड़ेगा। इन मित्र ने कहा है, संपूर्णतया शिष्य-भाव ग्रहण करने की मेरी क्षमता नहीं है, लेकिन संपूर्णतया शिष्य-भाव से बचने की क्षमता है? अगर संपूर्णतया का ही मामला है तो संपूर्णतया शिष्य-भाव से बचने की क्षमता है? वह भी नहीं है। क्योंकि वह कहते हैं, किसी दिन मैं आपके पास आऊं प्रार्थना लेकर, कोई प्रश्न लेकर, तो आप मेरी सहायता करेंगे? दूसरे से सहायता मांगने की बात ही बताती है कि संपूर्ण भाव से शिष्य से बचना भी आसान नहीं है, संभव नहीं है। पर निर्णय आप ले ही रहे हैं। यह निर्णय शिष्यत्व के पक्ष में न लेकर शिष्यत्व के विपरीत ले रहे हैं; क्यों? क्योंकि शिष्यत्व के पक्ष में अहंकार को रस नहीं है। अहंकार को कठिनाई है। शिष्यत्व के विपरीत अहंकार को रस है। उन मित्र से मैं कहना चाहूंगा, और सभी से, आप शिष्य-भाव से आयें, मित्र-भाव से आयें, गुरु-भाव से आयें, मैं आपकी सहायता कन आप उस सहायता को ले नहीं पायेंगे। एक बर्तन नदी से कहे कि मैं ढक्कन बंद तेरे भीतर आऊं तो पानी तू देगी या नहीं? तो नदी कहेगी, पानी मैं दे ही रही हैं, तम ढक्कन बंद करके आओ या खला करके आओ। लेकिन नदी का देना ही काफी नहीं है, पात्र को लेना भी पड़ेगा। शिष्यत्व का मतलब कुल इतना ही है कि पात्र लेने को आया है। उतनी तैयारी है सीखने की। और तो कोई अर्थ नहीं है शिष्यत्व का। ___ भाषा बड़ी दिक्कत में डाल देती है। भाषा में ऐसा लगता है, ठीक सवाल है। अगर मैं बिना शिष्य-भाव लिए आपके पास आऊं, बिना शिष्य-भाव लिए आपके पास आ कैसे सकते हैं? पास आने का मतलब ही शिष्य-भाव होगा। फिजीकली, शरीर से पास आ जायेंगे, लेकिन अंतस से पास नहीं आ पायेंगे। और बिना शिष्य-भाव लिए आने का अर्थ है कि सीखने की तैयारी मेरी नहीं है, फिर भी आप मुझे सिखायेंगे या नहीं? मैं खुला नहीं रहूंगा, फिर भी आप मेरे ऊपर वर्षा करेंगे या नहीं? __ वर्षा क्या करेगी? पात्र अगर बंद हो, उलटा हो। बुद्ध ने कहा है, कुछ पात्र वर्षा में भी खाली रह जाते हैं, क्योंकि वे उलटे जमीन पर रखे होते हैं। वर्षा क्या करेगी? झीलें भर जायेंगी, छोटा-सा पात्र खाली रह जायेगा। शायद पात्र यही सोचेगा कि वर्षा पक्षपातपूर्ण है, मुझे नहीं भर रही है। लेकिन उलटे पात्र को भरना वर्षा के भी सामर्थ्य के बाहर है। आज तक कोई गुरु उलटे पात्र में कुछ भी नहीं डाल सका है। वह संभव नहीं है। वह नियम के बाहर है। उलटे पात्र का मतलब 509 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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