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महावीर-वाणी भाग : 1
उतर आना पड़ता है। इसलिए अगर दो लोग जिंदगी भर लड़ते रहें, तो आप आखिर में पायेंगे कि उनके गुण एक जैसे हो जाते हैं। क्योंकि जिससे लड़ना पड़ता है, उसके तल पर होना पड़ता है, नीचे उतरना पड़ता है। ___ इसलिए महावीर कहेंगे, अगर प्रशंसा बन सके तो करना, क्योंकि प्रशंसा में ऊपर जाना पड़ता है, निंदा में नीचे आना पड़ता है। यह सवाल नहीं है कि दूसरा आदमी निंदा योग्य था या प्रशंसा योग्य था, यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि जब आप प्रशंसा करते हैं तो आप ऊपर उठते हैं और जब आप निंदा करते हैं, तो आप नीचे गिरते हैं। वह आदमी कैसा था, यह तो निर्णय करना भी आसान नहीं है।
इसलिए महावीर कहते हैं, कि किसी का तिरस्कार न रखता हो, क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो।
यह नहीं कहते कि अक्रोधी हो, क्योंकि शिष्य से यह जरा ज्यादा अपेक्षा हो जायेगी। इतना ही कहते हैं, क्रोध को ज्यादा न टिकने देता हो। क्रोध क्षण भर को आता हो, तब तक जाग जाता हो और क्रोध को विसर्जित कर देता हो। धीरे-धीरे क्रोध नहीं आयेगा, लेकिन वह दूर की बात है। यात्रा के पहले चरण में क्रोध को अधिक न टिकने दे, इतना ही काफी है। ___ आपको पता है, आप क्रोध को कितना टिकने देते हैं? कुछ लोग हैं, उनके बाप-दादे लड़े थे, अभी तक क्रोध टिका है। अभी तक वे लड़ रहे हैं, क्योंकि वह दुश्मनी बाप-दादों से चली आ रही है। आज आपको क्रोध हो जाये, आप जिंदगी भर उसको टिकने देते हैं। वह बैठा रहता है भीतर। कब मौका मिल जाये, आप बदला ले लें।
क्रोध अगर एक क्षण में उठने वाली घटना है और खो जाने वाली तो पानी का एक बुलबुला है। बहुत चिंता की जरूरत नहीं है। एक लिहाज से अच्छा है। इसलिए वे लोग अच्छे होते हैं जो क्रोध कर लेते हैं और भूल जाते हैं, बजाय उन लोगों के जो क्रोध
हैं। ये लोग खतरनाक हैं। ये आज नहीं कल कोई उपद्रव करेंगे। इनकी केटली का ढक्कन भी बंद है और नीचे आग भी जल रही है। विस्फोट होगा। ये किसी की जान लेंगे। उससे कम में ये माननेवाले नहीं हैं। केटली अच्छी है जिसका ढक्कन खुला है। भाप ज्यादा हो जाती है, ढक्कन थोड़ा उछल जाता है, भाप बाहर निकल जाती है, केटली अपनी जगह हो जाती है।
हर आदमी एक उबलती हुई केटली है, जिंदगी की आग नीचे जल रही है। ढक्कन थोड़ा ढीला रखना अच्छा है। बिलकुल चुस्त मत कर लेना, जैसा संयमी लोग कर लेते हैं। फिर वे जान लेऊ हो जाते हैं। खुद तो मरेंगे, दो चार को आसपास मार डालेंगे। ___ महावीर कहते हैं, जिसका ढक्कन थोड़ा ढीला हो। भाप ज्यादा होती हो, छलांग लगाकर बाहर निकल जाती हो, ढक्कन वापस अपनी जगह हो जाता हो।
क्रोध बिलकुल न हो, यह शिष्य से अपेक्षा नहीं की जा सकती, यह तो आखिरी बात है। लेकिन क्षण भर टिकता हो, बस इतना भी काफी है। असल में क्रोध इतनी बीमारी नहीं है जितना टिका हुआ क्रोध बीमारी है क्योंकि टिका हुआ क्रोध भीतर एक स्थायी धुआं हो जाता है। कुछ लोग ऐसे हैं जो क्रोधित नहीं होते, उनको होने की जरूरत नहीं है। वे क्रोधित रहते ही हैं। उनको होने वगैरह की आवश्यकता नहीं है, वे हमेशा तैयार ही हैं। वे तलाश कर रहे हैं कि कहां खूटी मिल जाये, और हम अपने को टांग दें। तो खूटी न मिले तो भी वे कहीं खिड़की, दरवाजे पर कहीं न कहीं टांगेंगे, निर्मित कर लेंगे खुंटी।
क्रोध निकल जाता हो, क्षण भर आता हो तो बेहतर है। वैसा आदमी भीतर क्रोध की पर्त निर्मित नहीं करता। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है, महावीर के मुंह से यह बात कि क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो। बड़ी महत्वपूर्ण बात है।
'मित्रों के प्रति सदभाव रखता हो।' यह बड़ी हैरानी की बात है। हम कहेंगे कि मित्रों के प्रति सदभाव होता ही है। बिलकुल झूठ है। मित्रों के प्रति सदभाव रखना
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