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________________ विनय शिष्य का लक्षण है होगी। गुरु के पास तो पूर्ण नग्न – जो हम हैं सब उघाड़कर रख देने का है। उसमें कुछ भी छिपाने का नहीं है । यह अछिपाव अर्थ ही सरलता है। 'कुतूहलता न हो, गंभीर हो । ' जिज्ञासा गंभीर बात है, कुतूहल नहीं है, क्युरिआसिटी नहीं है । इन्कवायरी और क्युरिआसिटी में फर्क है। बच्चे कुतूहल होते हैं, कुतूहली का आप मतलब समझते हैं ? कुछ करना नहीं है पूछकर, पूछने के लिए पूछना है । आ गया खयाल कि ऐसा क्यों है पूछ लिया। इससे क्या उत्तर मिलेगा, उससे जीवन में कोई अंतर करना, यह सवाल नहीं है। इसलिए बच्चों के बड़े मजेदार सवाल होते हैं। एक सवाल उन्होंने पूछा उसका आप उत्तर भी नहीं दे पाये कि दूसरा सवाल पूछ लिया। आप जब उत्तर दे रहे हैं, तब उन्हें कोई रस नहीं है, उनका मतलब पूछने से था । मेरे पास लोग आते हैं। मै बहुत चकित हुआ। वह एक सवाल - कहते हैं कि बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है, आपसे पूछना है। वे पूछ लेते हैं। उन्होंने सवाल पूछ लिया। मैं उनसे पूछता हूं, पत्नी आपकी ठीक, बच्चे आपके ठीक ? वे कहते हैं, बिलकुल ठीक हैं। वे सवाल ही भूल गये इतने में। वे घंटे भर जमाने भर की बातें करके बड़े खुश वापस लौट जाते हैं। मैं सोचता हूं सवाल का क्या हुआ जो बड़ा महत्वपूर्ण था, जो मैंने इतने से पूछने से कि बच्चे कैसे हैं, समाप्त हो गया। फिर उन्होंने पूछा ही नहीं। कुतूहल था, आ गये थे पूछने, ईश्वर है या नहीं? मगर इससे कोई मतलब न था, इससे कोई संबंध न था । शायद यह पूछ भी एक रस दिखलाना था कि मैं ईश्वर में उत्सुक हूं। यह भी अहंकार को तृप्ति देता है कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं, श्व की खोज कर रहा हूं। मार्पा अपने गुरु के पास गया, नारोपा के पास । तो तिब्बत में रिवाज था कि पहले गुरु की सात परिक्रमाएं की जायें, फिर सात बार उसके चरण छूये जायें, सिर रखा जाये, फिर साष्टांग लेट कर प्रणाम किया जाये, फिर प्रश्न निवेदन किया जाये। लेकिन मार्पा सीधा पहुंचा, जा कर गुरु की गर्दन पकड़ ली और कहा कि यह सवाल है। नारोपा ने कहा कि मार्पा, कुछ तो शिष्टता बरत, यह कोई ढंग है? परिक्रमा कर, दण्डवत कर, विधि से बैठ, प्रतीक्षा कर। जब मैं तुझसे पूछूं कि पूछ, तब पूछ। लेकिन मार्पा ने कहा, जीवन है अल्प। और कोई भरोसा नहीं कि सात परिक्रमाएं पूरी हो पायें ! और अगर मैं बीच में मर जाऊं तो नारोपा, जिम्मेवारी तुम्हारी कि मेरी ? तो नारोपा ने कहा कि छोड़ परिक्रमा, पूछ । परिक्रमा पीछे कर लेना । नारोपा ने कहा है कि मार्पा जैसा शिष्य फिर नहीं आया। यह कोई कुतूहल न था, यह तो जीवन का सवाल था । यह कोई कुतूहल नहीं था । यह ऐसे ही पूछने नहीं चला आया था। जिंदगी दांव पर । जब जिंदगी दांव पर होती है, तब जिज्ञासा होती है। और जब ऐसी खुजलाहट होती है दिमाग की, तब कुतूहल होता है । , 'किसी का तिरस्कार न करे। इसलिए नहीं कि तिरस्कार योग्य लोग नहीं हैं जगत में, काफी हैं। जरूरत से ज्यादा हैं। बल्कि इसलिए कि तिरस्कार करने वाला अपनी ही आत्महत्या में लग जाता है। जब आप किसी का तिरस्कार करते हैं तो वह तिरस्कार योग्य था या नहीं, लेकिन आप नीचे गिरते हैं। जब आप तिरस्कार करते हैं किसी का, तो आपकी ऊर्जा ऊंचाइयां छोड़ देती है और नीचाइयों पर उतर आती है। यह बहुत मजे की बात है कि तिरस्कार जब आप किसी का करते हैं तो आपको उसी के तल पर भीतर उतर आना पड़ता है। इसलिए बुद्धिमानों ने कहा है, मित्र कोई भी चुन लेना, लेकिन शत्रु सोच-समझ कर चुनना। क्योंकि आदमी को शत्रु के तल पर Jain Education International 497 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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