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________________ विनय शिष्य का लक्षण है बड़ी कठिन बात है। क्योंकि मित्र का मतलब, जिसको हम जानते हैं, जिसको हम भलीभांति पहचानते हैं। जिसको नहीं पहचानते उसके प्रति सदभाव आसान है। जिसको जानते हैं, उसके प्रति सदभाव बड़ा मुश्किल है। मित्रों के प्रति सदभाव बड़ा मुश्किल है। मार्क ट्वैन ने कहा है कि हे परमात्मा! शत्रुओं से मैं निपट लूंगा, मित्रों से तू मुझे बचाना। मित्र बड़ी अदभुत चीज है। जिसे हम जानते हैं, जिसका सब कुछ हमें पता है, उसके प्रति कैसे सदभाव रखें? अज्ञान में सदभाव आसान है, ज्ञान में मश्किल हो जाता है। इसलिए जितना हमारे कोई निकट होता है उतना ही दर भी हो जाता है। और हम मित्रों के संबंध में भी इधर-उधर जो बातें करते रहते हैं, वे बताते हैं कि सदभाव कितना है। पीठ पीछे हम क्या कहते रहते हैं. उससे पता चलता है. सदभाव कितना है। महावीर कहते हैं, मित्रों के प्रति सदभाव रखता हो, पुरा सदभाव रखता हो । 'शास्त्रों से ज्ञान पाकर गर्व न करता हो।' क्योंकि शास्त्रों से ज्ञान का कोई मूल्य ही नहीं है। इसलिए गर्व व्यर्थ है। और शास्त्रों के ज्ञान से गर्व पैदा होता है, इसलिए विशेष रूप से यह सूचन किया है, क्योंकि शास्त्रों से जब ज्ञान मिल जाता है तो लगता है मैंने जान लिया, बिना जाने। अभी जानना बहत दूर है। अभी किताब में पढ़ा कि पानी प्यास बुझाता है, अभी पानी नहीं मिला। अभी किताब में पढ़ा कि मिठाई बड़ी मीठी होती है, अभी स्वाद नहीं मिला। अभी किताब में पढ़ा कि सूरज उगता है और प्रकाश ही प्रकाश होता है, जिंदगी अभी अंधेरे में है। तो किताब को पढ़ कर जो गवे न करता हो। लेकिन किताब को पढ़ कर गर्व आ ही जाता है। लगता है, जाना। इसलिए शास्त्रीय आदमी हो और अहंकारी न हो, बडा मश्किल है। शास्त्र अहंकार के लिए बोझिल है। इसलिए पंडित की चाल देखें. पंडित की आंख देखें, उनकी भाव-भंगिमा जरा पहचानें, तो वे जमीन पर नहीं चलते। वे चल नहीं सकते। जमीन और उनके बीच बड़ा फासला होता है। इसलिए दो पंडितों को पास बिठा दें, तो जो घटना दो कुत्तों के बीच घट जाती है, वही घट जाती है। क्या हो जाता है? एकदम कुत्तों के गले में खराश आ जाती है। एकदम भौंकना शुरू कर देते हैं। जब तक एक हार न जाये, तब तक दूसरे को शांति नहीं मिलती। __ मैंने तो सुना है कि पंडित मर कर कुत्ते बिल्लियां हो जाते हैं। वे पुरानी आदत वश भौंकते चले जाते हैं। __ क्या हो जाता होगा? शास्त्र इतना भौंकता क्यों है? शास्त्र नहीं भौंकता। शास्त्र से अहंकार पोषित हो जाता है। लगता है, मैं जानता हूं, और जब ऐसा लगता है कि मैं जानता हूं तो फिर कोई और जान सकता है, यह मानने का मन नहीं होता। फिर कोई और भी जानता है जो मुझसे भिन्न जानता है, तो शत्रुता निर्मित हो जाती है। फिर सिद्ध करना जरूरी हो जाता है कि मैं ठीक हूं। पंडित सत्य की खोज में नहीं होता, मैं ठीक हूं, इसकी खोज में होता है। महावीर कहते हैं—'शास्त्रों को पाकर गर्व न करता हो, किसी के दोषों का भंडाफोड़ न करता हो।' कोई प्रयोजन नहीं है। किसी के दोष पता भी चल जायें तो उनकी चर्चा का क्या अर्थ है? आपकी चर्चा से उसके दोष न मिट जायेंगे। हो सकता है, बढ़ जायें। अगर आप सच में ही चाहते हैं कि उसके दोष मिट जायें तो इन दोषों की सारे जगत में चर्चा करते रहने से कोई मतलब नहीं। लेकिन, एक मामले में हम बड़े सृजनात्मक लोग हैं। किसी का जरा-सा दोष दिख जाये तो हमारे पास मैग्नीफाइड ग्लास है, हम उसको फिर इतना बड़ा करके देखते हैं कि सारा ब्रह्मांड का विस्तार छोटा मालूम पड़ने लगता है। सुना है मैंने, मुल्ला ने एक दिन अपनी पत्नी को फोन किया। फोन करना पड़ा, क्योंकि ऐसी घटना हाथ में लग गयी थी। बताया कि पड़ोसी अहमद के मित्र रहमान की पत्नी को लेकर भाग गया। दोनों के बच्चे सड़कों पर भीख मांग रहे हैं। और बहुत-सी बातें बतायीं। पत्नी भी रस से भर गयी। क्योंकि पत्नियों को वियतनाम में क्या हो रहा है, इससे मतलब नहीं, पड़ोसी की पत्नी कहां भाग 499 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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