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अरात्रि-भोजन : शरीर-ऊर्जा का संतुलन
क्रोध, लोभ, मोह-जो बाहर से प्रभावित करते हैं मन को आंदोलित करते हैं, मन को भी छोड़ दो। वहां से भी चेतना को हटा लो। तुम हटाये जाओ चेतना को उस समय तक जब तक कि तुम्हें कुछ भी दिखायी पड़े कि यह बाहरी है। उसे तोड़ते चले जाओ। इसको महावीर ने भेद-विज्ञान कहा है-'द साइंस आफ डिसक्रिमिनेशन'। तुम अपने को तोड़ते चले जाओ उससे, जो भी पराया मालूम पड़ता है, बाहर से आया हुआ मालूम पड़ता है। हट जाओ उससे। एक दिन ऐसा आयेगा कि बाहर से आया हुआ कुछ भी न बचेगा, तुम अनाश्रव हो जाओगे। तुम्हारे भीतर कुछ भी बाहर से आया न होगा। उसी दिन अगर तुम बचते हो तो समझना कि आत्मा है। अगर उस दिन नहीं बचते तो समझना कि कोई आत्मा नहीं है।
आदमी के भीतर अगर आत्मा है, तो उसे जानने का एक ही उपाय है कि हमें बाहर से जो भी मिला है, उसका त्याग कर दें; चेतना से त्याग कर दें, चेतना को हटा लें, दूर कर लें। जिस दिन मैं भीतर ही भीतर रह जाऊं और मैं कह सकूँ, यह मेरी मां से नहीं आया, मेरे पिता से नहीं आया, समाज से नहीं आया, शिक्षा से नहीं आया; यह किसी ने मुझे नहीं दिया। यह मेरा भीतरीपन है, यह मेरा अंतस है, उसी दिन समझना कि मैंने आत्मा पा ली। __ अनाश्रव मार्ग है हटा देने का, जो बाहर से आया। हम जोड़ हैं, बाहर के और भीतर के। चार्वाक या नास्तिक कहते हैं कि हम सिर्फ बाहर के जोड़ हैं। महावीर कहते हैं, हम बाहर और भीतर दोनों के जोड़ हैं। जो बाहर से आया हुआ है, उसके संग्रह का नाम शरीर है. और जो बाहर से नहीं आया हआ है उसका नाम आत्मा है। लेकिन इस आत्मा को खोजना पडे व जी रहे हैं। हमें कोई पता नहीं है। हम कहते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं आत्मा है। और यह शब्द कोरा आकाश में खो जाता है धुएं की तरह। इसका कोई बहत अर्थ नहीं है। इसका अर्थ तो केवल उसी को हो सकता है जिसने अपने भीतर बाहर का सब छोड़ दिया चेतना से, हटा ली चेतना सब तरफ से, और उस बिंदु पर पहुंच कर खड़ा हो गया कि कह सके कि यह बाहर से आया हुआ नहीं है।
बुद्ध घर लौटे बारह वर्ष के बाद, तो पिता ने कहा कि माफ कर दे सकता हूं तुम्हें अभी भी। लौट आओ।
बुद्ध ने कहा कि आप थोड़ा गौर से मुझे देखें! मैं वही नहीं हूं जो आपके घर से गया था। जो आपके घर से गया था, वह केवल काया थी, बाहर का था। अब मैं उसे जान कर लौटा हं जो भीतर का है, जो काया नहीं है। अब मैं और ही हं।
लेकिन पिता क्रोध में थे, जैसा कि अकसर पिता होते हैं। पिता, और पुत्र पर क्रोध में न हो, यह जरा असंभावना है।
असंभावना इसलिए है कि पिता की आकांक्षाएं पुत्र पर टिकी रहती हैं, और इस दुनिया में कौन किसकी आकांक्षा पूरी कर सकता है। अपनी ही आकांक्षा पूरी कोई नहीं कर पाता, दूसरे की कोई कैसे करेगा? पिता की सब आकांक्षाएं पुत्र पर टिकी रहती हैं, वह कोई पूरी नहीं होती। सभी पिता क्रोध में होते हैं। पिता होने का मतलब क्रोध में होना है। बचना मुश्किल है। __ और जो भी पुत्र हुआ, उसे कुपुत्र होने की तैयारी रखनी ही चाहिए। कोई उपाय नहीं है। बुद्ध जैसा पुत्र भी पिता को लगता है, कुपुत्र!
बद्ध के पिता ने कहा कि हमारे घर में कभी कोई भिक्षा-पात्र लेकर नहीं घमा है। छोड़ो यह भिक्षा-पात्र, तुम सम्राट के बेटे हो। यह सारा राज्य तुम्हारा है। मत करो नष्ट मेरे वंश को। यह क्या लगा रखा है, हटाओ यह सब!
बुद्ध ने कहा, आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं। आप जरा क्रोध को कम करें, आंख को धुएं से मुक्त करें, देखें तो, कौन सामने खड़ा है। स्वभावतः पिता और नाराज हो गये होंगे। पिता ने कहा कि मैं तुम्हें नहीं पहचानता! मेरा हड्डी, मांस-मज्जा तू है। मेरा खून तेरी नसों में बह रहा है और मैं तुझे नहीं पहचानता?
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